________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 4 - 1 (150) // 349 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 4 उद्देशक - 4 卐 सम्यक्चारित्रम् // चौथे अध्ययन का तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- तीसरे उद्देशक में निर्दोष तपश्चर्या कही है, किंतु यह तपश्चर्या तो संयम में रहे हुए मुनीजन हि संपूर्ण रूप से कर शकतें हैं, अत: इस चौथे उद्देशक में संयम का स्वरूप कहते हैं... I सूत्र // 1 // // 150 // 1-4-4-1 आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं उवसमं तम्हा अविमणे वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरनुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि // 150 // II संस्कृत-छाया : आपीडयेत् प्रपीडयेत् निष्पीडयेत्, त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं, हित्वा उपशमं, तस्मात् अविमना: वीरः, स्वारतः समितः सहितः सदा यतेत, दुरनुचरः मार्ग: वीराणां अनिवर्तगामिनाम्, विवेचय मांस-शोणितम्, एषः पुरुषः द्रव्य: वीरः आदानीयः व्याख्यातः। यः धुनाति समुच्छ्रयं उषित्वा ब्रह्मचर्ये // 150 // III सूत्रार्थ : तपश्चर्या के द्वारा शरीर का आपीडन, प्रपीडन एवं निष्पीडन क्रमश: करें, पूर्व के संयोग का त्याग करें, उपशमभाव को प्राप्त करें, इस प्रकार वैमनस्य रहित, वीर, संयमरत, पांच समितिवाला एवं ज्ञानादि से युक्त वह मुनी संयम में हि प्रयत्न करें... क्योंकि- मोक्षगामी वीर पुरुषों का यह मार्ग कष्ट से हि पालन कीया जाता है, अत: मांस एवं लोही (रक्त) को तपश्चर्या से क्षीण करें... ऐसा यह पुरुष द्रव्य, वीर, एवं आदेयवचनवाला होता है, कि- जो ब्रह्मचर्य स्वरूप संयम में रहकर शरीर अथवा कर्मो का विनाश करता है... // 150 //