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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 4 - 2 - 1 (143) 321 - जाने वाला दान निर्जरा का कारण था। परन्तु दुष्ट परिणामों के कारण वह दान नागश्री को कर्मबन्ध का कारण बन गया। ___३-जो अनास्रव-व्रत विशेष या संयम साधना संवर एवं निर्जरा का स्थान है। परन्तु भावना की अस्थिरता एवं अविशुद्धता के कारण व्यक्ति निर्जरा के स्थान में कर्मबन्ध कर लेता है। कुण्डरीक राजर्षि का उदाहरण इसी गिरावट का प्रतीक है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे वासना के प्रवाह में बह गए और रात-दिन उसी के चिन्तन में लगे रहे। एक दिन वेष त्याग कर फिर से राज्य के भोगोपभोगों को भोगने लगे और अति भोग के कारण भयंकर व्याधि से पीड़ित होकर तीन दिन में आयुष्य पूर्ण करके सातवीं नरक में जा पहुंचे। अतः संयम हि कर्म निर्जरा का स्थान था, परन्तु भावना में विकृति आते ही; वह हि संयम कर्म बन्ध का भी स्थान बन गया। ४-जो पापकर्म के स्थान हैं, वे हि स्थान शुभ अध्यवसायों के कारण से निर्जरा के स्थान बन जाते हैं, इलायची पुत्र बांस पर नाटक कर रहा है। निकट भविष्य में उसकी पत्नी होने वाली नट-कन्या ढोलक बजा रही थी। दर्शक उसके नृत्य कौशल को देखकर वाहवाह पुकार रहे थे; परन्तु राजा का. ध्यान नट के नृत्य पर नहीं, किंतु उस नट-कन्या पर लगा हुआ था। राजा उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया था। वह उसे अपनी रानी बनाना चाहता था। इसलिए वह चाहता था कि- किसी प्रकार यह नट नीचे गिर कर समाप्त हो जाए तो इस नट-कन्या को मैं अपने अधिकार में कर लूं, जब कि- वह नट कहां के राजा को प्रसन्न करके धन पाने के लिए बार-बार बांस पर चढ उतर कर रहा था। फिर भी पारितोषक नहीं मिल रहा था। इतने में पास के घर में एक मुनि की भिक्षा विधि को देख कर उसकी भावना में परिवर्तन आया, और परिणाम स्वरूप धन एवं भोग-विलास की आकांक्षा त्याग में बदल गई। वह कर्मबन्ध का स्थान उसके लिये निर्जरा का कारण बन गया। यह सब भावों का चमत्कार है। इससे यह स्पष्ट होता है कि- कर्मबन्ध एवं निर्जरा में भावों की प्रमुखता है। परन्तु यह कथन निश्चय नय की अपेक्षा से है। व्यवहार नय की अपेक्षा से भावों के साथ स्थान एवं क्रिया का भी मूल्य है। परिणामों की विशुद्ध एवं अशुद्ध धारा को प्रत्येक व्यक्ति देख नहीं सकता। परन्तु व्यवहार को व्यक्ति भी भली भांति जान लेता है। भावों के साथ स्थान एवं व्यवहार शुद्धि को भी नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि- धर्म स्थान एवं धर्म निष्ठ व्यक्तियों की संगति का भी जीवन पर प्रभाव होता ही है। . संयति राजा शिकार खेलने गया था और अपने बाण से एक मृग को घायल भी कर दिया था, परंतु वहीं मुनि से बोध पाकर वह संयति-राजा संसार से विरक्त हो गया, मुनि बन गया। इस प्रकार जीवन को परिवर्तित करने में एवं विचारों को नया मोड़ देने में साधु
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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