________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 1 - 1 (139) 305 तथा पूजा एवं सत्कार आदि के योग्य जो हैं, वे अरिहंत... तथा समृद्धि ऐश्वर्य आदि से युक्त जो हैं, वे भगवंत... अर्थात् ऐसे सभी अरिहंत भगवंत अन्य जीवों ने किये हुए प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- यद्यपि यहां सूत्र में वर्तमानकाल का प्रयोग कीया है तो भी उपलक्षण से भूतकाल में कहे है एवं भविष्यत्काल में कहेंगे... ऐसा समझीयेगा... सामान्य दृष्टिकोण से देव एवं मनुष्यों की पर्षदा में सभी जीवों को अपनी अपनी भाषा में समझ में आवे इस प्रकार अर्धमागधी भाषा से कहते हैं... तथा अंतेवासी शिष्यों के जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा एवं मोक्ष स्वरूप पदार्थों के संशयों के दूर करनेके लिये विशेष प्रकारसे कहते हैं... सम्यग् दर्शन ज्ञान एवं चारित्र तीनों मीलकर मोक्षमार्ग होता है... तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योग कर्मबंध के हेतु हैं तथा स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव की अपेक्षा से पदार्थ सत् है तथा पर द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव से पदार्थ असत् होता है... और प्रत्येक पदार्थ सापेक्ष-दृष्टि से सामान्य एवं विशेष दोनों स्वरूपवाला होता है इत्यादि अनेक बातें कहते थे, कहते हैं, और कहेंगे... अथवा यहां आचक्षते, भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति एवं प्ररूपयन्ति यह सभी एकार्थक हि. है... वे तीर्थंकर अरिहंत भगवंत ऐसा कहतें हैं कि- सभी पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-वनस्पति तथा बेइंद्रिय-तेइंद्रिय-चउरिंद्रिय-पंचेंद्रिय आदि प्राणी... क्योंकि- यह सभी जीव इंद्रिय-बलउच्छ्वासनिश्वास तथा आयुष्य स्वरूप प्राणों को धारण करते हैं; अत: उन्हें यहां वे प्राण शब्द से ग्रहण कीया है... तथा सभी “हैं" "होएंगे” तथा “थे" उन्हें सूत्र में “भूत" कहते हैं... और वे जीवों के चउदह समूह में विभाजित किये गये है... तथा “जी रहें हैं, जी रहे थे और जी रहे होंगे” ऐसे तीनो काल के सभी नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव स्वरूप चारों गति के जीव... तथा सभी सत्त्व याने अपने हि कीये हुए साता एवं असाता के उदय से होनेवाले सुख एवं दु:ख का अनुभव करनेवाले सभी सत्त्व (जीव)... अथवा यह चारों शब्द एकार्थक हि हैं... तत्त्व के भेद-पर्यायों से यहां ऐसा कहा गया है... यह सभी प्राणी, भूत, जीव, एवं सत्त्व अर्थात् सभी प्राणीओं को दंड-चाबुक आदि से न मारें तथा प्रसह्य याने बलात्कार या जोर जुलम से हुकम करके आदेश न दें... तथा नोकर-चाकर-दास-दासी आदि का ममत्व के साथ परिग्रह न करें तथा उन्हें परिताप न दें तथा शारीरिक एवं मानसिक पीडा उत्पन्न करके प्राण त्याग (मरण) हो ऐसा अपद्रावण न करें... ऐसे स्वरूपवाला कहा गया यह धर्म हि दुर्गति के द्वारा पर अर्गला के समान है तथा सुगति के मार्ग में सोपान (सीडी) के समान है...