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________________ 302 1 - 4 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ___ यह सभी उत्तरोत्तर असंख्यगुण असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... इस प्रकार कर्मो की निर्जरा के लिये असंख्य लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण बनाये हुए संयमस्थानों के समूह से बनाइ हुइ श्रेणीयां उत्तरोत्तर असंख्यगुण बढते हुए अध्यवसायों के कंडकों की प्राप्ति से होती है और वे असंख्यगुण असंख्यगुण अधिक निर्जरावाली हैं... और काल की दृष्टि से विपरीत है... अर्थात् अयोगी केवलज्ञानी से लेकर प्रतिलोम याने उतरते क्रम से संख्येय गुण काल की श्रेणी से जानीयेगा... यहां सारांश यह है कि- अयोगी केवलज्ञानी जितने समय में जितने कर्मो का क्षय करतें हैं, उतने हि कर्मो का क्षय करने में सयोगी केवलज्ञानी को संख्येयगुण अधिक काल लगता है... इस प्रकार प्रतिलोभ प्रकार से धर्म की पृच्छा करने की इच्छावाले पर्यंत जानीयेगा... इस प्रकार यहां कहे गये नीति-नियम के प्रकार से सम्यग्दर्शनवालों के हि तपश्चर्या, ज्ञान एवं चारित्र सफल हैं... हां ! यदि कोइक उपाधि याने पौद्गलिक भोगसुखों की कामना के साथ तपश्चर्यादि करतें हैं तब वे सफल नहिं होतें... अत: वे उपाधि कौन कौन है ? वह अब कहतें हैं... नि. 225 आहार, उपाधि याने उपकरण, पूजा और ऋद्धि याने आमर्ष आदि औषधियां आदि की प्राप्ति के निमित्त से जो व्यक्ति ज्ञान एवं चारित्र क्रियाएं करते हैं तथा रसगारव ऋद्धिगारव एवं सातागारव आदि में प्रतिबद्ध (आसक्त) होकर भी जो धर्मक्रियाएं करतें हैं वे सभी कृत्रिम हैं अर्थात् वे धर्मक्रियाएं सहज भाववाली परमार्थ स्वरूप नहि हैं... जिस प्रकार आहार आदि पदार्थों की प्राप्ति के लिये कीये हुए ज्ञान एवं चारित्र के धर्मानुष्ठान कृत्रिम है अतः सफल नहिं होतें इस प्रकार बाह्य एवं अभ्यंतर बारह प्रकार की तपश्चर्या में भी सफलत्व एवं निष्फलत्व को जानीयेगा... तथा कृत्रिम धर्म-अनुष्ठानवालों में श्रमणभाव नहिं होता, और जो श्रमण नहि है, उनके धर्मानुष्ठान गुणवाले नहि होतें... अतः उपाधि के अभाववाले सम्यग् दर्शनवालों के हि तपश्चर्या, ज्ञान एवं चारित्र सफल होते हैं यह यहां सारांश है... अतः सम्यग्दर्शन में हि यत्न करना चाहिये... तथा सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के श्रद्धान स्वरूप हैं... और जीवादि नव तत्त्व का स्वरूप तीर्थंकरों ने कहे हुए हैं... वे तीर्थंकर प्रभुजी, सभी घातिकर्म स्वरूप कलंकों का आत्मा में से दूर होने से प्रगट हुए सकल पदार्थों के तीनों काल के भाव-पर्यायों को ग्रहण करनेवाले केवलज्ञान से युक्त होते हैं... यह बात अब सूत्रानुगम से आये हुए सूत्र से हि कहतें हैं... // इति चतुर्थाध्ययने उपक्रम एवं निक्षेप // 卐卐卐
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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