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________________ 300 1 - 4 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्मसेना को जीतने की इच्छावालों को सम्यग्दर्शन में प्रयत्न करना चाहिये... क्योंकिसम्यग्दृष्टि जीव के हि तपश्चर्या, ज्ञान, चारित्र आदि सफल होते हैं... अतः सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन में हि प्रयत्न करना चाहिये... अब प्रकारांतर याने अन्य प्रकार से कहते हैं कि- सम्यग्दृष्टि को हि आगे के गुणस्थानों में होनेवाले गुणों का आविर्भाव होता है... नि. 223 सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय में क्रमशः असंख्येयगुण अधिक निर्जरावाली श्रेणीयां होती हैं... जैसे कि- देशोन एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाले ग्रंथि-प्रदेश में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीव कर्मो की निर्जरा की दृष्टि से वे परस्पर तुल्य हैं किंतु धर्म की संज्ञा (इच्छा) जिन्हें उत्पन्न हुइ है, वे उन से असंख्येयगुण अधिक निर्जरावाले हैं... तथा धर्म की पृच्छा के इच्छावाले होते हुए जो गुरु के पास जाने की इच्छा करते हैं, वे उन से भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावालें हैं... तथा जो गुरु के अभिमुख होकर धर्म की पृच्छा करते हैं वे उन से भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले हैं... तथा धर्म को प्राप्त करने की इच्छावाले उनसे भी असंख्यगुण निर्जरावाले होते हैं... तथा क्रियाविष्ट जो प्राणी धर्म का स्वीकार करता है वे उन से भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... तथा उनसे भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले पूर्व प्रतिपन्न होते हैं... इत्यादि सात स्थान सम्यक्त्व की उत्पत्ति के संबंधित हैं... // 1 // उसके बाद देशविरति को प्राप्त करने की इच्छावाले, प्राप्त करनेवाले एवं पूर्व प्रतिन्न यह तीनों भी उत्तरोत्तर असंख्यगुण असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... // 2 // तथा उस के बाद सर्वविरति को प्राप्त करने की इच्छावाले, प्राप्त करनेवाले एवं पूर्व प्रतिपन्न भी उत्तरोत्तर असंख्यगुण; असंख्यगुण अधिक अधिक निर्जरावाले होते हैं... // 3 // तथा पूर्व प्रतिपन्न सर्वविरतिवालों से अनंतानुबंधी कषायों को क्षय करने की इच्छावाले, क्षय करनेवाले एवं क्षय कीये हुए भी उत्तरोत्तर असंख्यगुण असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... // 4 // तथा यही बात दर्शन मोहनीय के तीनों भेद में भी अभिमुख, क्रियारूढ एवं अपवर्ग याने उस क्रिया को पूर्ण करनेवालों तीनों में भी जानीयेगा..: // 5 // तथा क्षीण दर्शन सप्तकवालों से भी जो क्षीणसप्तक के साथ उपशम श्रेणी में आरूढ हुआ है, वे असंख्यगुण निर्जरावाले हैं... // 6 // तथा उपशांत मोह गुणस्थानकवाले उन से भी असंख्यगुण निर्जरावाले हैं... // 7 // तथा चारित्रमोहनीय के क्षपक (क्षपक श्रेणीवाले) उन से भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... // 8 // तथा क्षीणमोह गुणस्थानकवाले उन से भी असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होतें हैं... यहां भी अभिमुख, क्रियारूढ एवं अपवर्ग याने पूर्ण क्रियावाले ऐसे तीन तीन भेद यथासंभव जानीयेगा... // 9 // तथा उनसे भी भवस्थ केवलज्ञानी असंख्यगुण निर्जरावाले होते हैं... // 10 // तथा उनसे भी शैलेशी अवस्थावाले अयोगी केवली असंख्यगुण अधिक निर्जरावाले होते हैं... // 11 // ग्रंथि-प्रदेशमें रहे हुए देशोन एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाले मिथ्यादृष्टि
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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