________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 4 - 2 (135) 283 I सूत्र // 2 // // 135 // 1-3-4-2 जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ // 135 // II संस्कृत-छाया : यः एकं जानाति सः सर्वं जानाति, य: सर्वं जानाति सः एकं जानाति // 135 // III * सूत्रार्थ : जो एक को जानता है, वह सभी को जानता है, और जो सभी को जानता है वह एक को जानता है // 135 // IV टीका-अनुवाद : जो कोइ भी साधु-महात्मा परमाणु आदि कोइ भी एक द्रव्य एवं उसके भूतकाल तथा भविष्यत्काल के सभी पर्याय, अथवा स्व-परके अर्थात् अपने आप के एवं अन्य के पर्याय को जानता है वह सभी पदार्थों के स्व-पर पर्यायोंको जानता है... क्योंकि- अतीतकाल एवं अनागतकाल के पर्यायवाले एक द्रव्य का संपूर्ण विज्ञान भी सभी द्रव्यों के विज्ञान के बिना संभवित हि नहि है..... . यह हि बात हेतु और हेतुमद् भाव से दर्शाते हुए कहते हैं कि- जो व्यक्ति संसार के उदर-भागमें रहे हुए सभी वस्तु-पदार्थों को जानता है, वह हि एक घट आदि वस्तु को सर्वथा जानता है... क्योंकि- वह घट हि अतीत एवं अनागतकाल में पर्याय-भेद से उन उन सभी वस्तु के स्वरूप को प्राप्त कीये हुए है, और प्राप्त करेंगे... अर्थात् कोइ भी द्रव्य काल सें अनादि-अनंत स्थितवाला है, और काल क्रमसे कोई भी एक वस्तु-पदार्थ सभी प्रकार की वस्तु के स्वरूप को स्व-पर के भेद से प्राप्त करता है... ___ अन्यत्र कहा भी है कि- एक द्रव्य के अतीतकाल एवं अनागतकाल में जितने भी अर्थ पर्याय एवं वचन पर्याय हैं, उतने हि इस विश्व में द्रव्य है... अतः इस प्रकार से एक द्रव्य का सर्वथा ज्ञाता तीर्थंकर प्रभुजी सर्वज्ञ हि हैं, और जो सर्वज्ञ है वे हि सभी जीवों को संभवित उपकारक उपदेश देते हैं... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : __ जैनदर्शन में मूल रूप से दो तत्त्व माने हैं-जीव और अजीव। संसार के सभी रूपीअरूपी पदार्थ इन दो तत्त्वों में आ जाते हैं। और संसार में इन दोनों का इतना घनिष्ट संबंध है कि- एक का ज्ञान होने पर दूसरे का या समस्त पदार्थों का परिज्ञान हो जाता है। जब