________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 9 (133) म 277 मुच्यते इति ब्रवीमि // 133 // -III सूत्रार्थ : ज्ञानादि से सहित अप्रमत्त साधु दुःखमात्रा से स्पृष्ट होने पर भी झंझा याने व्याकुल नहि होता है... तथा इस अर्थ को देखो ! द्रव्य याने साधु लोकालोक के प्रपंच से मुक्त होता है... ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हुं // 133 // IV टीका-अनुवाद : सम्यग्ज्ञान आदि से युक्त अथवा हितसे युक्त ऐसा साधु उपसर्ग से होनेवाले या रोग आदि व्याधि से होनेवाले दुःखों से स्पृष्ट होने पर भी व्याकुल-मतिवाले नहि होतें... तथा उन उपसर्ग या रोग को दूर करने के लिये प्रयत्न भी नहिं करतें... तथा झंझा याने इष्ट शब्दादि विषयों की प्राप्ति में रागझंझा तथा अनिष्ट शब्दादि विषयों की प्राप्ति में द्वेषझंझा... इस प्रकार दोनो झंझा से होनेवाली व्याकुलता का त्याग करें यह यहां भाव याने सारांश है... तथा इस उद्देशक के आरंभ से लेकर अनंतर याने पूर्वके सूत्र पर्यंत में जो कुछ उपदेश-अर्थ कहा है, उन्हे विवेक के द्वारा कर्तव्य और अकर्तव्य का विभाग करके आत्मा में धारण करें... तथा द्रव्य स्वरूप याने मुक्तिगमन योग्य साधु-महात्मा चौदह राजलोक में विद्यमान धर्मास्तिकाय आदि छः (6) द्रव्य... और उनके प्रपञ्च याने गुण-पर्याय स्वरूप विस्तार... जैसे कि- जीवद्रव्य में पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सौभाग्य, दुर्भाग्य इत्यादि द्वन्द्व स्वरूप विकल्प... वे इस प्रकार... नरकगति में उत्पन्न हुए नारक को नारक स्वरूप से तथा एकेंद्रियादि जीवों को एकेंद्रियादि स्वरूप से देखते हैं... इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक इत्यादि स्वयं हि समझकर कहीयेगा... अतः इस प्रकार के प्रपंच से वह अप्रमत्त साधु मुक्त होता है... अर्थात् अब वह मुक्तात्मा चौदह-प्रकार के जीवस्थानक में से किसी भी प्रकार के स्थान से व्यपदेश याने कहने योग्य नहि होता... "इति" समाप्ति सूचक है, तथा ब्रवीमि याने मैं सुधर्मास्वामी, वीर प्रभुजी के मुख से जैसा सुना है, वैसा हि हे जंबू ! तुम्हें कहता हुं... v सूत्रसार : विचारशील, चिन्तनशील साधक कष्ट उपस्थित होने पर भी आकुल-व्याकुल नहीं होता। घबराता नहीं और वह उन कष्टों को दूर करने के लिए कोई सावध आचरण भी नहि करता है। वह समस्त दुःखों का मूल कारण कर्म को ही मानता है। अतः वह अपनी शक्ति सामर्थ्य को दुखों के मूल कारण कर्मो को उन्मूलन करने में लगा देते है। उसका प्रयत्न समस्त दुःखों का एवं संसार भ्रमण के कारण कर्म का क्षय करने का रहता है। अतः वह अपनी वृत्ति को बाहिर से मोड़ कर अन्दर की ओर हटा लेता है। या यों कहिए कि-वह साधु सदा आत्म साधना में संलग्न रहता है।