SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 270 1 - 3 - 3 - 6 (130) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यह बात नहि चाहते हुए भी प्राप्त तो हुए है न ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- ना ! नहि, क्योंकि- आपने हमारा अभिप्राय समझा नहि है... हमने यहां संसार के वस्तु संबंधित अरति एवं रति में आनंद स्वरूप अशुभ अध्यवसाय का हि निषेध कहा है... असंयम में अरती एवं संयम में रति तो आत्मशुद्धि के लिये करनी हि चाहिये... यह यहां सारांश है... क्योंकियहां असंयम में अरति एवं संयम में रति याने आनंद आत्मशुद्धि के कार्य में उपद्रव स्वरूप नहि है, किंतु उपकारक हि है... तथा आग्रह याने गृद्धि-आसक्ति जिसको नहि है ऐसा अग्रह मुनी प्रव्रज्या का पालन करें... यहां सारांश यह है कि- शुक्लध्यान के पूर्व काल में कोइक निमित्त से धर्म-ध्यानवाले मुनी को संयम में अरति और असंयम में कभी आनंद हो, तो भी उनको आग्रह के ग्रह का अभाव होने से वे मुनित्व के योग्य है... तथा सभी प्रकार के हास्य के स्थानों का त्याग करके आलीन याने इंद्रियों के विषय-विकारों के निरोध स्वरूप मर्यादा में लीन तथा मन-वचन एवं काया के अशुभ-कार्यो के निरोध स्वरूप गुप्त... अर्थात् कच्छुए की तरह संकुचित देहवाला वह साधु संयमानुष्ठान स्वरूप प्रव्रज्या का पालन करें... क्योंकि- संयमानुष्ठान की सफलता आत्म-पुरुषार्थ से हि है, इसीलिये तो कहते हैं कि- हे पुरुष ! तुं हि तुम्हारे मित्र हो... सामान्यतया घर, पुत्र, पत्नी, धन, धान्य, सुवर्ण इत्यादि के त्याग से अकिंचन एवं तृण तथा मणी-मोती, लेष्टु याने पत्थर और सुवर्ण (सोने) में सम-दृष्टिवाले मुमुक्षु-साधु को भी उपसर्ग एवं परीषहों से जब मति व्याकुल होती है तब कभी कभी मित्र की आशंसा याने इच्छा होती है, अत: उस इच्छा को दूर करने के लिये कहते हैं कि- हे पुरुष ! पुर् याने शरीर में जो रहे वह पुरुष... अर्थात् प्राणी... जंतु... जीव... यहां हे पुरुष ! कहकर जीव को हि आमंत्रण कर रहें हैं क्योंकिजीव हि उपदेश के योग्य है, तथा संयमानुष्ठान के लिये समर्थ भी है... अत: संसार से उद्विग्न अथवा विषय-कामना में रहे हुए मुमुक्षु आत्मा को. कोइक आचार्य म. हितशिक्षा स्वरूप अनुशासन करतें है... अथवा अन्य साधुजन आदि भी जनता को हितशिक्षा देते हुए कहते हैं कि- हे जीव ! अच्छे अनुष्ठान करनेवाला तुं हि तुम्हारा मित्र है... और विपर्यय याने बुरे आचरण करनेवाला तुं हि तुम्हारा शत्रु है... तो फिर अब बाहर मित्र को क्यों चाहते हो ? क्यों ढुंढते हो ? क्योंकिमित्र वह है कि- जो उपकारक है... किंतु वह आत्मा का उपकारक तो पारमार्थिक आत्यंतिक एवं एकांतिक गुणवाले एवं सन्मार्ग में रहे हुए अपने आप के आत्मा को छोडकर अन्य किसी से भी वह उपकार होना शक्य नहि है... तथा संसार हेतुभूत पाप के कार्यों में सहायक होनेवाले जो उपकारी दिखते हैं वे मित्र नहि है, किंतु मित्र के आभास वाले हि है, क्योंकि- महा संकट की प्राप्ति हो ऐसे संसार-समुद्र में पतन के हेतु होने से वे मित्र नहि, किंतु शत्रु हि है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy