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________________ 268 // 1-3-3-4/5 (128-129) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगे के सूत्र से कहेंगे... ___ अपुनरावृत्ति स्वरूप सिद्धशिला पर जो पहुंचे हुए हैं वे तथागत याने सिद्धात्माएं.. अथवा तथागत याने ज्ञेय पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञ प्रभु... वे अतीत अर्थ को अनागत स्वरूप नहिं देखतें तथा जो अनागत है उन्हें अतीत स्वरूप नहि ग्रहण करतें किंतु यथार्थ रुप से हि ग्रहण करते हैं, क्योंकि- अर्थ याने वस्तु के परिणाम विचित्र हि हैं... तथा पर्याय स्वरूप अर्थ, द्रव्यार्थ रूप से तो एक हि है... अथवा तथागत याने राग-द्वेष के अभाव से संयतात्मा-साधु विषयभोगादि अतीत अर्थ को तथा देवीओं के विषयभोग आदि अनागंत अर्थ को भी याद नहिं करतें और अभिलाषा भी नहिं करतें... जैसे कि- मोह के उदय से कितनेक संसारी जीव मोहमूढता से पूर्वकाल के विषय भोगों को याद करते हैं तथा भविष्यत्काल के भोगोपभोगों की अभिलाषा करतें हैं. वैसे विरक्त माधु-संत नहिं करतें... तथा मोक्ष-मार्ग में चलनेवाले सभी साधु-मुनी भी ऐसे हि होतें हैं यह बात अब कहतें हैं... विद्यूत-कल्प याने विविध प्रकार से आठों प्रकार के कर्मो को कल्प याने आचार के द्वारा जिन्हों ने आत्मा में से दूर कीये हैं ऐसे विद्यूतकल्पवाले साधुश्रमण अतीत एवं अनागतकाल के विषय-भोगों के अभिलाषी नहिं होतें... किंतु संवरभाव से वे साधु-श्रमण पूर्वबद्ध कर्मो का क्षय करता है, या क्षय करेंगे... यहां सारांश यह है कि- कर्मो के क्षय के लिये उद्यत तथा संसार के भोग एवं दुःखों के विकल्पाभास को दूर करनेवाले धर्मध्यानवाले या शुक्लध्यानवाले महायोगीश्वर महामुनी को जो गुण-लाभ होता है, वह सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : मोह एवं अज्ञान से आवृत्त आत्मा अपने स्वरूप को नहीं जान सकती। वह न अपने पूर्व भव को देख सकती है और न भविष्य के स्वरूप को जान सकती है। इसलिए अज्ञानी लोग आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न कल्पनाएं करते रहते हैं। कुछ लोग ऐसा मानते हैं किपुरुष सदा पुरुष ही बनता है और स्त्री-स्त्री ही बनती है। परन्तु यह मान्यता असत्य है। क्योंकिपर्यायें सदा परिवर्तनशील हैं। उनमें सदा एक रूपता नहीं रहती। सर्वज्ञ परमात्मा इस बात को प्रत्यक्ष देखते हैं। इसलिए कहा गया है कि- तथागत-सर्वज्ञ अतीत और अनागत काल की पयायों को एक रूप से स्वीकार नहीं करते। और वे भूत एवं भविष्य काल के भोगों में आसक्त नहि होते हैं और विषयभोगों की आकांक्षा भी नहि रखते है। क्योंकि- उन्होने आकांक्षा के उत्पादक राग-द्वेष का ही समूल क्षय कर दिया है। 'तथागत' शब्द का अर्थ है-सर्वज्ञ। इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि-"जो पुनरावृत्ति से रहित है और जो पदार्थ को यथार्थ स्वरूप-पूर्ण रूप से जानते है," उन्हें तथागत
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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