________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 3 - 2 - 1 (115) 237 होता है। क्योंकि- हिंसा से दूसरे प्राणियों को कष्ट होता है, दुःख होता है। सभी प्राणी सुख चाहते हैं। अतः उन्हें कष्ट देना, परिताप देना, पीड़ा पहुंचाना पाप है। इस से कर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप जीव जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान होता है तथा विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है। ___ अत: जन्म-जरा के स्वरूप एवं जीवों के स्वभाव का ज्ञाता प्रबुद्ध पुरुष आरंभ-समारंभ से बचने का प्रयत्न करता है। सम्यग्दृष्टि जीव पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि- पाप कर्म में आसक्ति तब तक रहती है, जब तक आत्मा में सद्ज्ञान की ज्योति नहीं जगती। अतः पाप का कारण अज्ञान है। मिथ्यादृष्टि आरंभ-समारंभ में संलग्न रहता है, आसक्त रहता है और हार्दिक इच्छा पूर्वक उसमें प्रवृत्ति करता है, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव पापाचरण को अच्छा नहि मानता... वह कभी परिस्थितिवश उसमें प्रवृत्त होता है, फिर भी वह अंतः करण-भावना से उस कार्य को त्याज्य ही समझता है। चौथे गुणस्थान से जीवका विकास आरम्भ होता है। इस गुणस्थान को स्पर्श करते हि मिथ्यादर्शन की क्रिया रूक जाती है। पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यान की क्रिया नहीं लगती, छठे गुणस्थान में परिग्रह की क्रिया नहीं लगती, और वीतराग गुणस्थान में केवल ईर्यापथिकी क्रिया लगती है और अयोगिगुणस्थान में कोई क्रिया नहीं लगती। इससे स्पष्ट है कि- पाप कर्म का बन्ध छठे गुणस्थान में रूकता है। छठे गुणस्थान में अप्रत्याख्यान एवं परिग्रहआसक्ति का अभाव रहता है। परन्तु पांचवें गुणस्थान में पदार्थों के प्रति आसक्ति का पूर्ण त्याग नहीं होता और चौथे गुणस्थान में जीव आसक्ति को त्याज्य समझता है, परन्तु वह उसका आंशिक त्याग भी नहीं कर सकता। इसलिए चौथे एवं पांचवें गुणस्थान में रहा हुआ जीव आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा निवृत्त नहीं होता। परन्तु उसकी भावना निवृत्त होने की रहती है इसलिए यह कह गया है कि- सम्यग्दृष्टि जीव पाप कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता है। निष्कर्ष यह निकला कि- दुःखों से बचने के लिए ज्ञान का होना ज़रूरी है। प्रबुद्धज्ञानी पुरुष ही पापों से बच सकता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि- “भूएहिं जाणे पडिलेह सायं" इसका तात्पर्य यह है कि- जो यथार्थ ज्ञान के द्वारा मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की साधना में संलग्न रहता है, वह पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता। क्योंकि- वह पाप कर्म के दुष्फल-दुःखद परिणाम से परिचित होता है। इससे स्पष्ट होता है कि- सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर साधक अपने आपको सदा पाप कर्म से निवृत्त करने का प्रयत्न करता है। वह पाप कर्म के दुःखद परिणामों को जानकर उनसे बचने के लिए धर्म का आचरण करता है, संयम साधना में संलग्न होता है। हमें यों कहना चाहिए कि- सम्यग्दृष्टि आत्माभिमुखी होता है।