________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-3-2-1(115); 235 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 2 __ // दुःखानुभवः // प्रथम उद्देशक पूर्ण हुआ... अब द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ कर रहें हैं... यहां प्रथम एवं द्वितीय उद्देशक में परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम उद्देशक में भावसुप्त का स्वरूप कहा था, और यहां उन प्राणीओं को भावस्वाप के विपाकफल स्वरूप असाता कहेंगे... इस परस्पर के संबंध से आये हुए इस सूत्र के सूत्रानुगम में प्राप्त सूत्र का संहितादि पद्धति से शुद्ध उच्चार के साथ पाठ करना चाहिये... और वह सूत्र यह है... I सूत्र // 1 // // 115 // 1-3-2-1 जाई चवुद्धिं च इहऽज्ज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं। तम्हाऽतिविज्जे परमंति नच्चा, संमत्तदंसी न करेइ पावं // 115 // II संस्कृत-छाया : जातिं च वृद्धिं च इह आर्य ! अद्य पश्य, भूतैः जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातम्। तस्मात् अतिविद्यः परमं इति ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी न करोति पापम् // 115 // . III सूत्रार्थ : - इस संसार में जन्म एवं वृद्धि आज हि देख अथवा हे आर्य ! जन्म एवं वृद्धि को यहां देखो... तथा जीवों के साथ आत्मा की तुलना करके साता को जानो ! इस प्रकार से विद्यावाले (सम्यग्दृष्टि प्राणी) परम तत्त्व को जानकर पाप नहि करतें... // 115 // IV टीका-अनुवाद : इस मनुष्य लोक स्वरूप संसार में जाति याने प्रसूति = जन्म और वृद्धि याने बाल, कुमार, यौवन और वृद्धावस्था पर्यंत की वृद्धि को कालक्षेप किये बिना आज हि देखो ! यहां सारांश यह है कि- जन्म पाये हुए मनुष्य को वृद्धावस्था में शारीरिक एवं मानसिक जो दुःख होते हैं उन्हें विवेकचक्षु से आज हि देखो ! ___ कहा भी है कि- जन्म लेते हुए एवं मरते हुए जंतु को इतना सारा दुःख (पीडा) होता है कि- उस दुःख से संतप्त वह प्राणी अपने जन्म को याद हि नहि करता है...