________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 3 - 1 - 3 (111) 219 जानता है... वह इस प्रकार- कि- यह राग एवं द्वेष का संग संसार एवं शब्दादि विषयों का कारण है... ऐसा जानकर जो मुनी संग का त्याग करता है वह हि परमार्थ से तत्त्वज्ञ है... इससे यह सारांश प्राप्त हुआ कि- संसार एवं शब्दादि विषयों के राग-द्वेषात्मक संग को जानकर जो मुनी उसका त्याग करता है वह हि मुनी आवर्त एवं श्रोतः के संग का ज्ञाता है... अब कहते हैं कि- सोये हुए को होनेवाले दोष, एवं जागरण करनेवाले को होनेवाले गुण को जाननेवाला मुनी कौन से गुणों को प्राप्त करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : .. ___साधना के क्षेत्र में सब से पहले ज्ञान की आवश्यकता होती है। जब तक साधक को अपनी आत्मा का, लोक-परलोक का बोध नहीं है, जीव-अजीव की पहिचान नहीं है, तब तक वह संयम में प्रवृत्त नहीं हो सकता। संयम का अर्थ है-दोषों से निवृत्त होना। अतः दोषों से निवृत्त होने के लिए यह जानना आवश्यक है कि- दोष क्या है ? कौन-सी प्रवृत्ति दोषमय और कौन सी निर्दोष प्रवृत्ति है ? इसलिए आगम में स्पष्ट कहा गया है कि- साधक पहिले ज्ञान प्राप्त करे फिर क्रिया में प्रवृत्ति करे। प्रस्तुत सूत्र में भी मुनि-जीवन का वास्तविक स्वरूप बताया गया है। इस में यह स्पष्ट कर दिया है कि- वह ज्ञानवान हो, आत्म स्वरूप का, वेदों का ज्ञाता हो, एवं धर्म का, ब्रह्म स्वरूप का एवं मति-श्रुत आदि ज्ञान से लोक के स्वरूप का ज्ञाता हो। जो साधक इनके स्वरूप को नहीं जानता है, वह संयम का पालन भली-भांति नहीं कर सकता। अत: साधक के लिए सब से पहिले आत्म स्वरूप को जानना जरूरी है। जो साधक आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है, वह सम्पूर्ण लोक के स्वरूप का परिज्ञान जाता है। और आत्मा एवं लोक के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर उसकी साधना में, उसके आचरण में सहज ही गति एवं तेजस्विता आ जाती है। वह अपने आपको दोषों से बचाता चलता है। क्योंकि- वह इस बात को भली-भांति जान चुका है कि- इन दोषों में आसक्त होने के कारण ही आत्मा लोक में इधर-उधर भटकती फिरती है और विभिन्न योनियों में अनेक दुःखों का संवेदन करती है। इससे स्पष्ट हो गया कि- दोषों से बचने के लिए पहिले ज्ञान की आवश्यकता है। प्रस्तुत सूत्र में आत्मज्ञान के बाद वेदवित् होने को कहा गया है। 'वेयवं'- 'वेदवित्' का अर्थ है जिस शास्त्र के द्वारा जीवाजीव आदि के स्वरूप को जाना जाता है, उसे वेद कहते हैं। वह आचारांग आदि आगम है। अतः उनके परिज्ञाता को वेदवित् कहते हैं।