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________________ 212 1 - 3 - 1 - 1 (109) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के द्वितीय एवं तृतीय प्रहर में शयन करता है, तब भी वह दर्शनमोहनीय स्वरूप महानिद्रा के अभाव में जागरण अवस्थावाला हि है... और जो लोग द्रव्यनिद्रा के अभाव में जागते हों तो भी अज्ञानता के कारण से भाव से तो वे सोये हुए हैं... क्योंकि- अज्ञान हि महादुःख है... और दुःख हि प्राणीओं के अहित के लिये होते हैं यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : प्रथम शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में आत्मा एवं कर्म के सम्बन्ध तथा पृथ्वी आदि छह (6) जीवनिकाय में जीव की सजीवता एवं उनकी हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया है। दूसरे अध्ययन में कषायों पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है। परन्तु कषायों का उद्भव पदार्थों के निमित्त से होता है। अच्छे और बुरे पदार्थों को देखकर तथा अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोग मिलने पर या विषम परिस्थितियों के उपस्थित होने पर भावना में, विचारों में उत्तेजना एवं अन्य विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अत: प्रत्येक परिस्थिति एवं संयोग में-भले ही वह अनुकूल हो या प्रतिकूल, किंतु समभाव रखना चाहिए। प्रत्येक स्थिति में साम्यभाव को बनाए रखने वाला व्यक्ति ही कषायों पर विजय पा सकता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि- अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों प्रकार के परीषहों के उपस्थित होने पर राग या द्वेष न करे। प्रस्तुत अध्ययन का 'शीतोष्णीय' नाम है। 'शीतोष्णीय' शब्द का अर्थ है- ठण्डा और गर्म। परन्तु इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने इसका आध्यात्मिक अर्थ करते हुए बताया है कि- अनुकूल परीषह, प्रमाद उपशम, विरति और सुख शीत है और प्रतिकूल परीषह, तप, उद्यम, कषाय, शोक, वेद, कामाभिलाषा, अरति और दुःख उष्ण हैं। परीषहों की गणना शीत और उष्ण दोनों में करने का कारण यह है कि- स्त्री और सत्कार परीषह मन को अनुकूल होने से शीत हैं और शेष बीस परीषह प्रतिकूल होने से उष्ण हैं। एक विचारणा यह भी है कि- तीव्र परिणामी परीषद उष्ण और मन्द परिणामी परीषद शीत है। व्यवहार में भी, जो व्यक्ति धर्म एवं व्यवसाय के कार्य में प्रमादी-आलसी या सुस्त होता है, उसे ठण्डा और जो -परिश्रमी होता है, उसे उष्ण-तेज या गर्म कहते हैं। जब कोई व्यक्ति आवेश में होता है, तो झट कह दिया जाता है कि- यह क्रोध में जल रहा है। अत: जिस व्यक्ति के क्रोध आदि उपशांत हो गए हैं, उसे शीतल या उपशांत कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि- जो परीषह मन के अनुकूल हैं, उन्हें शीत कहा है और जो प्रतिकूल हैं, उन्हें उष्ण कहा गया है। नियुक्तिकार ने मोक्ष सुख को शीत एवं कषाय को उष्ण कहा है। क्योंकि- मोक्ष में व्यवहार
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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