________________ 206 1 - 3 - 0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जो परीषह मंद परिणामवाले हैं वे शीत है... यहां सारांश यह है कि- जो जो परीषह शरीर में दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं वे समभाव से सहन न होने के कारण से आधि याने मानसिक चिंता को, आर्तध्यान को करतें हैं वे तीव्र परिणामवाले होने से उष्ण है... और जो जो परीषह मात्र शरीर को हि दुःख-पीडा देते हैं, किंतु महासत्त्वशाली पुरुष को मानसिक पीडा नहिं देतें हैं वे भाव से मंद परिणामवाले हैं अत: शीत हैं... अथवा जो जो परीषह तीव्र परिणाम की प्रबलता से प्रगट होते हैं वे उष्ण, और जो परीषह मंद परिणामवाले होने के कारण से अल्प पीडा देते हैं वे शीत हैं... परीषह के बाद शीत स्वरूप प्रमाद कहा तथा उष्ण स्वरूप तपश्चर्या का उद्यम कहा था वह बात अब आगे की नियुक्ति-गाथा से कहते हैं... नि. 205 जो साधु श्रमणधर्म में प्रमाद करता है याने उद्यम नहि करता... तथा अर्थ याने धनधान्य-हिरण्य-सुवर्ण आदि में तथा उनके उपाय में उद्यम करतें हैं उन्हे शीतल याने शिथिल कहतें हैं... और जो श्रमणधर्म में उद्यम करते हैं उन्हें उष्ण याने उग्रविहारी कहते हैं... अब “उपशम" पद की व्याख्या करते हुए कहते हैं... नि. 206 क्रोध आदि कषायों के उदय के अभाव में उपशम होता है, अतः कषाय स्वरूप अग्नि के उपशम से वह साधु शीत याने शमभाववाला होता है... अर्थात् क्रोधादि की ज्वालाओं के अभाव में वह साधु परिनिर्वाण याने शांत होता है... तथा राग एवं द्वेष स्वरूप अग्नि के उपशम से वह साधु उपशांत है... तथा क्रोधादि के परिताप का उपशमन होने से वह साधु प्रसन्न सुखी है... क्योंकि- उपशांत कषायवाला हि साधु ऐसा शांत होता है... इसीलिये उपशांतकषायवाला साधु शीत होता है... यह शीतीभूत, परिनिर्वृत्त, शांत, प्रह्लादित, उपशांतकषाय, यह सभी एक अर्थवाले पदशब्द हैं... अब “विरति” पद की व्याख्या कहते हैं... नि. 207 जीवों को अभयदान देनेवाला साधु शीत याने सुख का मंदिर है... अतः सभी दुःखों के कारण ऐसे द्वन्द्वों के विराम से सत्तरह (17) भेदवाला संयम शीत है... तथा इससे विपरीत असंयम उष्ण है... और संयमासंयम याने देशविरति शीतोष्ण स्वरूप है... अथवा तो विवक्षा अनुसार सुख और दुःख के पर्याय = स्वरूप अन्य प्रकार से भी शीत और उष्ण होता है...