________________ 204 // 1-3-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - तृतीय उद्देशक में- संयमानुष्ठान को किये बिना मात्र दुःखों को सहन करने से हि श्रमण नहि कहलाते हैं... चतुर्थ उद्देशक में- कषायों का वमन करना चाहिये, और पाप कर्मो की विरति करनी चाहिये... ऐसे हि विदितवेद्य याने विद्वान् साधु को हि संयम होता है और क्षपकश्रेणी के क्रम से घातिकर्मो का क्षय होने से केवलज्ञान और भवोपग्राही अघातिकर्मो के क्षय से मोक्ष होता है... नामनिष्पन्न निक्षेप में "शीतोष्णीय" अध्ययन नाम है, अतः “शीत" एवं "उष्ण' पद के निक्षेप कहते हैं... नि. 200 नाम-स्थापना द्रव्य और भाव यह चार निक्षेप “शीत" पदके कहेंगे... और "उष्ण" पदके भी यही चार निक्षेपे कहे जाएंगे... यहां नाम और स्थापना सुगम होने से न कहते हुए अब द्रव्य निक्षेप शीत एवं उष्ण कहतें हैं... नि. 201 द्रव्य से शीतल द्रव्य, द्रव्य शीत है और उष्ण द्रव्य, द्रव्य उष्ण है... तथा भाव शीत याने पुद्गल का शीत गुण और भाव उष्ण याने पुद्गुल का उष्ण गुण... तथा जीव के गुण अनेक प्रकार से है... वे इस प्रकार- ज्ञ शरीर एवं भव्य शरीर से भिन्न तद्व्यतिरिक्त द्रव्य शीत याने शीत गुणवाले जो हिम, तुषार, करा आदि बर्फ स्वरूप द्रव्य शीत... यहां गुण और गुणवाले का अभेद भाव को ध्यान में लेकर कहते हैं कि- शीत के कारण जो बर्फ आदि द्रव्य... वे द्रव्य शीत हैं... यहां अप्रधान द्रव्य शीत समझीयेगा... इसी प्रकार अग्नि आदि द्रव्य उष्ण जानीयेगा... भाव शीत एवं भाव उष्ण पुद्गल और जीव की अपेक्षे से दो दो प्रकार से हैं... उनमें पुद्गलाश्रित भावशीत याने पुद्गल का शीत-स्पर्श गुण... यहां प्रधानता से गुण की विवक्षा करते हैं... इसी प्रकार भाव-उष्ण भी जानीयेगा... जीव के शीत एवं उष्ण स्वरूप गुण अनेक प्रकार से हैं... वे इस प्रकार- औदयिक आदि छह (6) भाव... उनमें कर्मो के उदय से प्रगट होनेवाले नारक आदि भव तथा कषाय की उत्पत्ति स्वरूप उष्ण... यह औदयिक भाव भावउष्ण है... तथा कर्मो के उपशम से प्राप्त सम्यक्त्व एवं विरति याने चारित्र स्वरूप औपशमिक भाव वह भावशीत है... इसी प्रकार क्षायिक भाव भी भावशीत है... क्योंकि- यह क्षायिक सम्यक्त्व एवं क्षायिक चारित्र स्वरूप है...