________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-6-3-4 (100-101) 179 करके पूर्ण आत्म-सुख को प्राप्त कर सके। - मनुष्य संसार में जो कुछ भी साता या दुःख पा रहा है, वह स्वकृत कर्म का फल है। प्रमाद एवं आसक्ति का सेवन करके ही वह मूढ़ भाव को प्राप्त होता है। अतः सबसे पहिले आसक्ति, ममत्व एवं मूर्छा भाव का त्याग करना चाहिए। यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3-4 // // 100-101 // 1-2-6-3/4 जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिण्णाय मेहावी विइत्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, से मइमं परिक्कमिज्जासि त्ति बेमि... // 100 // नारई सहइ वीरे वीरे न सहइ रतिं / जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे न रज्जइ // 101 // II संस्कृत-छाया : : यः ममायित मतिं जहाति सः त्यजति ममायितम्, स एव दृष्टपथः मुनिः, यस्य नास्ति ममायितम् / तं परिज्ञाय मेधावी विदित्वा लोकं वान्त्वा लोकसज्ञाम्, सः मतिमान् पराक्रमेथाः इति ब्रवीमि... न अरतिं सहते वीरः वीरः न सहते रतिम् / यस्मात् अविमनस्कः वीरः तस्मात् वीरः न रज्यति // 100-101 // III सूत्रार्थ : - जो साधु ममकारवाली मति का त्याग करता है वह हि ममता का त्याग करता है, और वह हि दृष्टपथ मुनी है कि- जिस को ममता नहि है... अतः परिग्रह की परिज्ञा करके मेधावी साधु लोक के स्वरूप को जानकर लोकसंज्ञा का त्याग करता है, वह हि मतिमान् है अतः तुम पराक्रम करो ऐसा हे जंबू ! मैं (सुधर्मास्वामी) तुम्हें कहता हुं... वीर पुरुष अरति को सहन नहि करता है, तथा वीर पुरुष रति को भी सहन नहि करता है... क्योंकि- साधु वीर पुरुष है, अत: अविमनस्क वीर पुरुष कहिं भी रागवाला नहि होता है // 100-101 // IV टीका-अनुवाद : ममायितं याने यह वस्तु मेरी है ऐसा भाव... परिग्रह के विपाक को जाननेवाला जो साधु ममकारवाली मति का त्याग करता है वह हि ग्रहण कीये हुए परिग्रह का त्याग करता है... सूत्र में परिग्रह के दो प्रकार कहे है... 1. द्रव्य परिग्रह एवं 2. भाव परिग्रह... यहां