________________ 1481 -2-5 - 4 (91) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को यन्त्र में पीलते हुए देखकर क्रोध के आवेश में नगर, राजा एवं पुरोहित आदि का विनाश करने की प्रतिज्ञा की थी। अभिमान के वेग में बाहुबली ने अपने से पहिले दीक्षित हुए लघु भ्राताओं को वन्दन नहीं करने की प्रतिज्ञा की थी। इस प्रकार माया एवं लोभ के वश स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए तप आदि साधना की प्रतिज्ञा करना अर्थात् निदान पूर्वक तप करना। इस प्रकार की प्रतिज्ञाओं से आत्मा स्वयं पतन की ओर प्रवृत्त होता है। अत: संयमनिष्ठ मुनि को कषाय के वश होकर कोई प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए। किंतु विवेक पूर्वक संयम-साधना में हि प्रवृत्ति करनी चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में साधु वृत्ति का विवेचन किया गया है। साधु परिग्रह-धन वैभव, मकान, परिवार आदि का सर्वथा त्यागी होता है, अत: वह क्रय-विक्रय की प्रवृत्ति में प्रवृत्त नहीं होता। क्रय की प्रवृत्ति द्रव्य के माध्यम से होती है और मुनि द्रव्य का त्यागी होता है। इसीलिए वह अपने उपयोग में आनेवाले आहार, वस्त्र-पात्र आदि किसी भी पदार्थ को न स्वयं खरीदता है और न किसी व्यक्ति को खरीदने के लिए प्रेरित करता है और उसके लिए खरीद कर लाई वस्तु को वह स्वीकार भी नहिं करता इत्यादि... प्रस्तुत सूत्र में प्रतिज्ञा का जो निषेध किया गया है, वह एक अपेक्षा विशेष से किया गया है न कि- प्रतिज्ञा मात्र का हि। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 91 // 1-2-5-4 दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं, पायपुंछणं उग्गहणं च कडासणं एएसु चेव जाणिज्जा // 91 // II संस्कृत-छाया : द्विधा छित्त्वा नियाति, वस्त्रं, पतद्ग्रहं (पात्र) कम्बलं, पादपुञ्छनकं, अवग्रहः, च कटासनं, एतेषु चैव जानीयात् // 91 // III सूत्रार्थ : राग और द्वेष दोनों का छेद करके प्रतिज्ञा सफल है... वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, अवग्रह तथा कटासन (आसन) इन सभी उपकरणों में प्रतिज्ञा जानें // 91 // IV टीका-अनुवाद : राग एवं द्वेष से जो प्रतिज्ञा है, उसे छेद करके ज्ञान-दर्शन और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में अथवा संयमानुष्ठान में अथवा भिक्षा आदि के लिये निश्चित अभिग्रह-प्रतिज्ञा करें... सारांश