________________ 138 // 1-2-5-1(88) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % - श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 5 // लोकनिश्रा // चौथा उद्देशक पूर्ण हुआ... अब पांचवे उद्देशक की व्याख्या का आरंभ करतें हैं... चौथे और पांचवे उद्देशक में परस्पर यह संबंध है कि- भोगसुखों का त्याग करके संयम और देह के परिपालन के लिये लोकनिश्रा से विहार करें... ऐसा जो कहा था, उसका अब यहां विस्तार से प्रतिपादन करतें हैं... जैसे कि- इस विश्व में संसार से उद्विग्न बने हुए एवं भोगोपभोगों की अभिलाषा का त्याग कीये हुए, पांच महाव्रतों को वहन करने वाले, निर्दोष (निष्पाप) अनुष्ठान को करनेवाले मुमुक्षु-साधु को जीवन पर्यंत की संयमयात्रा के निर्वाह के लिये तथा देह के परिपालन के लिये लोकनिश्रा से हि विहार करना चाहिये... क्योंकि- जो निराश्रय है उसे देह के साधन भिक्षा आदि कहां से हो ? और भिक्षा आदि के अभाव में धर्म-अनुष्ठान भी कैसे हो ? कहा भी है कि- धर्म के आचरण करनेवाले साधु को लोक में निश्रा-आश्रय देनेवाले पांच हैं, 1. राजा, 2. गृहपति (मकान मालिक), 3. षट्काय, 4. गण, 5. शरीर... अब देह के साधन... वस्त्र, पात्र, आहार-पानी, आसन, शयन आदि... उनमें भी प्रतिदिन उपयोग में आनेवाला आहार हि मुख्य है... और वह आहार, लोक याने जनसमूह जनता से प्राप्त करना चाहिये... लोक सामान्य तरह से अनेक प्रकार के उपायों के द्वारा अपने पुत्र-पत्नी आदि के लिये आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त हुआ होता है, अत: उनके वहां से साधु संयम और देह के निमित्त वृत्ति याने आहार आदि का अन्वेषण करें... यह बात अब सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 1 // // 88 // 1-2-5-1 जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जंति, तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं, सुण्हाणं, नाईणं, धाईणं, राईणं, दासाणं, दासीणं, कम्मकराणं, कम्मकरीणं, आएसाए पुढो पहेणाए सामासाए पायरासाए संनिहि-संनिचओ कज्जइ, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए // 88 // II संस्कृत-छाया : यैः इदं विरूपरूपैः शस्त्रैः लोकाय कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते, तद् यथा-आत्मनः तस्य पुत्रेभ्यः दुहितृभ्यः स्नुषाभ्यः ज्ञातिभ्यः धात्रीभ्यः राजभ्यः दासेभ्यः दासीभ्यः