________________ 126 // 1-2-4-4 (84) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महर्षि उपदेश देते हैं कि- कामभोग की आसक्ति से (कामानुषंग से) कर्मो का उपचय और कर्मो के उपचय से मरण, और मरण के बाद नरक में जन्म... और नरक से निकलकर तिर्यंच या मनुष्यगति में गर्भावस्था. वहां निषेक, कलल, अर्बुद, पेशी, व्युह, और गर्भप्रसव (जन्म) आदि... और जनम के बाद रोग... अतः कहते हैं कि- कामभोग में आसक्त मनवाले प्राणी को जब कभी असाता-वेदनीय कर्म के विपाकोदय में शिरोति = मस्तक पीडा तथा शूल आदि रोग उत्पन्न होते हैं... तब उस रोगावस्था में जिन्हों के साथ वह रहता है, वे आत्मीय स्वजन लोग उसकी निंदा तिरस्कार करते हैं, अथवा वह प्राणी उन आत्मीय स्वजनों की निंदा करे... अत: कहतें हैं कि- वे लोग तुम्हारे त्राण या शरण के लिये नहि होतें... और तुम भी उनके त्राण और शरण के लिये नहि होते हो... ऐसा जानकर यह जाने-समझें कि- सभी प्राणी अपने कीये हुए कर्मो के फल दुःख या सुख-साता पातें हैं अत: रोगावस्था में दुर्ध्यान न करें, और कामभोग का विचार भी न करें... अज्ञानी प्राणी रोगावस्था में शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के विषयभोगों की अभिलाषा में सोचता है कि- इन कामभोग को हम कैसे भोगेंगे... आज हमारी ऐसी रोगवाली अवस्था हुइ है कि- अच्छे अच्छे सुंदर कामभोग प्राप्त होते हुए भी हम भोग नहिं शकतें... ऐसा विचार यहां कामासक्त लोगों को होता है... इस संसार में विषयों के विपाक को नहिं जाननेवाले कितनेक ब्रह्मदत्तचक्री आदि मनुष्यों को ऐसा भोगोपभोग का अध्यवसाय-विचार आता है, सभी प्राणी को नहिं, क्योंकि- सनत्कुमारचक्रवर्ती को ऐसा विचार नहि हुआ था...' संक्षेप में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का स्वरूप इस प्रकार है कि- मरण पर्यंतवाले रोगों की वेदना से पराभव पाया हुआ, संताप के अतिरेक से विश्वासपात्र पत्नी. के भोगोपभोग के चिंतन से मूर्छा को प्राप्त होता हुआ, व्याकुलता को प्राप्त हुआ, विषमता का विषय बना हुआ, ग्लानि के गोचर में आया हुआ, दुःखों से देखा हुआ, काल (यम) ने गोद में लिया हुआ, पीडाओं से पीडित, नियति से आदेश पाया हुआ, दैव (दुर्भाग्य) ने ग्रहण करने की इच्छा की है ऐसा वह ब्रह्मदत्त अंतिम श्वासोच्छ्वास की अवस्था में रहा हुआ, और परलोग गमन स्वरूप महाप्रवास के मुख में रहा हुआ, दीर्घनिद्रा (मरण) के दरवाजे में रहा हुआ, जीवितेश (यमराज) की जिह्वा के अग्रभाग पे रहा हुआ... ऐसी इस विषम अवस्था में वह बोलने में स्खलना पाता है, शरीर से विह्वल वह प्रचुर प्रलाप करता है अर्थात् विषम स्थिति-अवस्था का अनुभव करता हुआ वह ब्रह्मदत्त महामोह के उदय से कामभोगों की चाह-इच्छा करके पास में हि बैठी हुइ तथा पति की वेदना से उत्पन्न हुए शोक से जिस की आंखो में से आंसु बह रहें हैं ऐसी पत्नी कुरुमती को "हे कुरुमती ! हे कुरुमती !" ऐसा पुकारता हुआ वह ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरण पाकर सातवी नरक भूमी में उत्पन्न हुआ... वहां नरक में भी तीव्रतर वेदना से पीडित होते हुए भी वेदना की अवगणना करके वह उस कुरुमती को हि बुलाता