________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-3 - 4/5 (81/82) म 115 महोवगरणं भवइ, तं पि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से, विनस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्सट्टाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एयं पवेइयं अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए, आयाणिज्जं च आयाय तंमि ठाणे न चिट्ठइ, वितहं पप्प अखेयण्णे तंमि ठाणंमि चिट्ठइ // 81-82 // // संस्कृत-छाया : इदमेव न अवकाङ्क्षन्ति, ये जनाः ध्रुवचारिणः। जाति-मरणं परिज्ञाय चरेत् सङ्क्रमणे दृढः॥ 81 // नास्ति कालस्य न आगमः, सर्वे प्राणिनः प्रियायुषः, सुखसाता (सुखास्वादाः) दुःखप्रतिकूला: अप्रियवधाः प्रियजीविनः जीवितुकामाः, सर्वेषां जीवितं प्रियं, तं परिगृह्य द्विपदं चतुष्पदं अभियुज्य संसिच्य त्रिविधेन या अपि तस्य तत्र मात्रा भवति, अल्पा वा बह्वी वा, सः तत्र गृद्धः तिष्ठति, भोजनाय, ततः तस्य एकदा विविधं परिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि तस्य एकदा दायादाः वा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति, राजानः वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते इति, सः परस्मै अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बाल: प्रकुर्वाण: तेन दुःखेन सम्मूढः विपर्यासं उपैति, मुनिना खु एतद् प्रवेदितम्, अनोघन्तरा एते न च ओघं तरितुं, अतीरङ्गमाः एते न च तीरं गन्तुं, अपारंगमाः एते न च पारं गन्तुम्, आदानीयं च आदाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति, वितथं प्राप्य अखेदज्ञः तस्मिन् स्थाने तिष्ठति // 81-82 // III सूत्रार्थ : जो लोग ध्रुवचारी याने मोक्षगामी है वे पूर्वोक्त क्षेत्रवास्तु आदि नहि चाहतें... किंतु जन्म और मरण की परिज्ञा करके दृढ प्रतिज्ञावाला साधु संयम में विचरे... // 81 // ___काल का आगमन नहिं है ऐसा नहि है, सभी प्राणीओं को आयुष्य प्रिय है, सुख का स्वाद प्रिय है, दुःख अप्रिय है, वध अप्रिय है जीवन प्रिय है, जीवित की इच्छावाले है, सभी को जीवित प्रिय है... उस (असंयम जीवित) का आश्रय करके द्विपद, चतुष्पद को काम में लगा कर, धन का संचय करके, तीन योग और तीन करण के द्वारा, उसको उसमें जितनी भी अल्प या अधिक अर्थ-धन की मात्रा प्राप्त होती है, उसमें वह आसक्त रहता है... भोजनके लिये, ततः उसको एक बार विविध प्रकार के परिशेष संभूत महोपकरण होते हैं उनको भी उनके भाइ (बंधु) लोग विभाजित करतें हैं, अथवा चौर उसे चोर जातें हैं, अथवा राजा उसको लुट लेता है, अथवा स्वयं हि नष्ट होते हैं, घरमें आग लगने से उस धनका जलकर विनाश