________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 1 - 1 - 1 35 के पहिले श्रुतस्कंध का पहला अध्ययन सात उद्देशकों में विभक्त हैं, दूसरा अध्ययन छह, तीसरा * और चौथा अध्ययन चार-चार, पांचवां अध्ययन छह, छट्ठा अध्ययन पांच, सातवां अध्ययन सात, आठवां अध्ययन आठ और नवम अध्ययन चार उद्देशकों में बंटा हुआ है / इस तरह आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के 6 अध्ययनों के 51 उद्देशक बनते हैं / ___ आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में चार चूलिकाएं हैं / प्रथम चूलिका में 10 से 16 तक, द्वितीय चूलिका में 17 से 23 तक और तृतीय एवं चतुर्थ चूलिका हि 24-25 वे अध्ययन स्वरूप है... / इस तरह द्वितीय श्रुतस्कंध में कुल 16 अध्ययन हैं / दसवें अध्ययन के 11 उद्देशक हैं / ग्यारहवें और बारहवें अध्ययन के तीन-तीन उद्देशक हैं / तेरहवें से सोलहवें अध्ययन तक सब के दो-दो उद्देशक हैं / शेष नव अध्ययनों में कोई उद्देशक नहीं हैं, उनमें एक ही विषय का एक ही धारा में वर्णन चलता है / इस तरह आचाराङ्ग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध की चार चूलिकाएं, 16 अध्ययन और 25 उद्देशक हैं / यहां तक आचाराङ्ग सूत्र के दोनों श्रुतस्कंधों में वर्णित अध्ययनों एवं उद्देशकों की संख्या का निर्देश किया गया है / उनमें वर्णित विषय का विवेचन यथास्थान किया जाएगा / आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रस्तुत अध्ययन का नाम शस्त्रपरिज्ञा है / जीवों की हिंसा के कारणभूत उपकरण को शस्त्र कहते हैं / शस्त्र भी द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार के होते हैं / जिन हथियारों या शस्त्रास्त्रों से प्राणियों के प्राणों का विनाश किया जाता है, उन चाकू, तलवार, रिवाल्वर, राइफल, बम्ब आदि को द्रव्य शस्त्र कहते हैं / और जिन अशुभ भावोंसे प्राणियों का वध करने की भावना उबुद्ध होती है तथा मन, वचन और शरीर के योगों की, हिंसा की और प्रवृत्ति होती है, उन राग-द्वेष युक्त विषाक्त परिणामों को भाव शस्त्र कहा गया है / 'परिज्ञा' शब्द का सीधा-सा अर्थ है-ज्ञान / परन्तु, ज्ञान का अर्थ सिर्फ जानना ही नहीं, तदनुसार आचरण करना भी है / इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर परिज्ञा शब्द के दो भेद किए गए हैं-१-ज्ञ परिज्ञा और २-प्रत्याख्यान परिज्ञा / संसार के कारणभूत राग-द्वेष एवं अशुभ योगों का परिज्ञान-बोध प्राप्त करना, 'ज्ञ' परिज्ञा है और 'ज्ञ' परिज्ञा से परिज्ञापितभली-भांति जाने हुए विकारी भावों एवं अशुभ योगों का परित्याग करना अथवा संसार मार्ग से निवृत्त होकर संयम साधना में प्रवृत्त होना 'प्रत्याख्यान' परिज्ञा है / 'ज्ञ' परिज्ञा से ज्ञान का उल्लेख किया गया है और 'प्रत्याख्यान' परिज्ञा के द्वारा त्यागमय आचरण को स्वीकार करने का आदेश दिया गया है / इस तरह एक 'परिज्ञा' शब्द में ज्ञान और क्रि / दोनों का समन्वय कर दिया गया है, जो वास्तव में मोक्ष का मार्ग है / और वस्तुतः ज्ञान का मूल्य भी त्याग में, निवृत्ति में ही रहा हुआ है / श्रमण-संस्कृति के चिन्तकों ने “णाणास्स फलं विरई" अर्थात् ज्ञान का फल विरति है, यह कह कर इस बात को अभिव्यक्त किया है कि वही ज्ञान