SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 // 1 - 1 - 1 - 1 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 9. क्रोध संज्ञा = क्रोध कषायके उदयसे अप्रीति स्वरूप... मान संज्ञा = मान कषायके उदयसे गर्व स्वरूप... माया संज्ञा = माया कषाय के उदयसे वक्रता-कपट स्वरूप... . लोभ संज्ञा = लोभ कषायके उदयसे गृद्धि = आसक्ति स्वरूप... 13. शोक संज्ञा = शोक मोहनीय कर्मके उदय से विलाप एवं वैमनस्य स्वरूप... 14. लोकसंज्ञा = स्वच्छंद रूपसे मनःकल्पित विकल्प स्वरूप लौकिकाचरण स्वरूप... जैसे कि- पुत्र न हो तो परलोकमें गति नहिं होती है... कुत्तेको यक्ष मानना (व्यंतर देव मानना) तथा ब्राह्मण हि देव है... कौवे हि पितामह = दादा है इत्यादि... पक्षिओंको पंखके वायुसे गर्भाधान होता है... यह सभी लौकिक मान्यताएं ज्ञानवरणीय के क्षयोपशम से एवं मोहनीय कर्मक उदयसे होती हैं... धर्म संज्ञा = क्षण याने उत्सव आदिके आसेवन स्वरूप - और यह धर्मसंज्ञा मोहनीयकर्मके क्षयोपशमसे होती है... यह पूर्वोक्त 1 से 15 संज्ञाएं सामान्य रूपसे संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोंको सम्यग्दर्शनके साथ या तो मिथ्यात्वमोहके उदयमें होती है... ओघसंज्ञा - अव्यक्त = अप्रकट उपयोग स्वरूप यह ओघसंज्ञा सामान्यतया वेलडीयोंका वृक्षके उपर चढना इत्यादि लक्षणसे जाना जा शकता है... और यह ओघसंज्ञा ज्ञानावरणीयकर्म के अल्प क्षयोपशमसे विश्व के सभी जीवोंमें देखा जा शकता है... यहां इस आचारांग सूत्रके इस प्रथम सूत्रमें तो (केवल). मात्र ज्ञानसंज्ञाका हि अधिकार है... इसलिये उस भाव ज्ञानसंज्ञा का हि निषेध कहा गया है... अर्थात् यहां कितनेक जीवोंको यह विशेष ज्ञान-समझ नहिं है... अब उस ज्ञानसंज्ञा का स्वरूप आगे के सत्र से दिखाया जाएगा... VI सूत्रसार : भारतीय-संस्कृति में साहित्य-सर्जन की प्राचीन पद्धति यह रही है कि पहले मंगलाचरण करके फिर सूत्र या व्यन्थ रचना की जाती थी / जैनागमों एवं अन्य ग्रन्थों की रचना भी इसी पद्धति से की गई है / इस पर यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यदि पहले मंगलाचरण करने की परंपरा रही है, तो प्रस्तुत सूत्र में उस परंपरा को क्यों तोड़ा गया ? क्योंकि, आचाराङ्ग
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy