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________________ 28 卐१-१-१-१॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन = IV सूत्रार्थ : हे आयुष्यमान् ! जंबूकुमार ! उस भगवान् महावीर प्रभुने ऐसा कहा है कि- इस विश्वमें कितनेक लोगोंको समझ याने विज्ञान नहिं है... V टीका-अनुवाद : संहितादिके क्रमसे टीकाकार महर्षि इस सूत्रकी व्याख्या करते हैं - 1. संहिता = शुद्ध पदोंका शुद्ध - स्पष्ट उच्चार.. 2. पद = श्रुतं मया आयुष्यमन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् - इह एकेषां नो सज्ञा भवति / इस सूत्र में क्रियापद एक हि है... शेष सभी नामपद है यह पदच्छेदके साथ सूत्रानुगम हुआ... इस प्रकार इस ग्रंथके अंत तक सूत्रानुगम कीजीयेगा... 3. पदार्थ = श्रुतं = सुना है... यह बात पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजीको कहते हैं कि श्रुतम् = सुना है, जाना है, याद रखा है, यह कहनेसे यह फलित हो रहा है कि- मैं जो कुछ कहुंगा वह परमात्मा महावीर प्रभुसे जो सुना है वह हि कहुंगा... इससे मानसिक कल्पना = विकल्पोंका निरास कीया है... मया = मैंने साक्षात् वीरप्रभुके मुखसे सुना है... परंपरासे अर्थात् यह सुनीसुनाइ बातें नहि है... ___ आयुष्यमान ! दीर्घायुवाले ! अर्थात् उत्तम जाति-कुल आदि होते हुए भी आयुष्य लंबा होना भी जरूरी है... शिष्य यदि दीर्घायु हो तब हि निरंतर अपने शिष्योंको उपदेश दे शकते हैं... यहां आचारांग सूत्रकी व्याख्या करते हैं... जिसका अर्थ स्वयं तीर्थंकर प्रभुने हि कहा है... इस संबंधसे अब "तेन'' पद आया है... तेन = वह उस तीर्थंकर प्रभुजीने कहा है... अथवा तो आमृशता = प्रभुजीके चरणकमलकी सेवा करते करते... इस प्रकारकी व्याख्या से विनय कर्म बताया... आवसता = गुरुकुलवासमें रहते हुए, अर्थात् प्रभुजीके पास रहते रहते.... इससे “गुरुकुलवास करना चाहीये' यह स्पष्ट हुआ... ये दो प्रकारकी व्याख्या पाठांतर
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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