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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-7 - 5 (20) 301 सब शक्तियों का उपयोग आध्यात्मिक साधना को विकसित करने के लिए करना चाहिए, न कि ऐहिक सुखों के लिए / क्योंकि, भौतिक सुख क्षणिक हैं और उनके पीछे दुःखों का अनन्त सागर ठाठे मार रहा है / अतः साधक को भौतिक सुखों की मृगतृष्णा को त्याग कर अपनी शक्ति को आत्मा को कर्मों से सर्वथा निवारण करने में ही लगाना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र का यही तात्पर्य है / अब सूत्रकार इस बात को बताते हैं कि जो व्यक्ति त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा में आसक्त रहता है, उसे उसका कटु फल भोगना पड़ता है / अतः मुनि को हिंसा से सर्वथा दूर रहना चाहिए / इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... I सूत्र // 5 // // 60 // से बेमि संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जंति ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति.! एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्घेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी नेव सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा, नेवऽण्णेहिं वाउसत्यं समारंभावेज्जा नेवण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिणाया भवंति, से ह मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि || 60 // II संस्कृत-छाया : सोऽहं ब्रवीमि सन्ति सम्पातिमाः प्राणिनः आहत्य सम्पतन्ति च स्पर्शं च खलु स्पृष्टाः .. एके सङ्घातं आपद्यन्ते, ये तत्र सङ्घातमापद्यन्ते ते तत्र पर्यापद्यन्ते, ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्र उपद्रान्ति, एतस्मिन् शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाताः भवन्ति, एतस्मिन् शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति / तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्रं समारभेत, नैवाऽन्यैः वायुशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवाऽन्यान् वायुशखं समारभमाणान् समनुजानीयात्, यस्य एते वायुशस्त्र-समारम्भाः परिण्णाताः भवन्ति, स खु मुनिः परिज्ञातकर्मा इति ब्रवीमि // 10 // III शब्दार्थ : से-वह / बेमि-मैं कहता हूं / संपाइमा-संपातिम-उड़ने वाले / पाणा-प्राणी जो / संतिहैं वे / आहच्च-कदाचित् / संपयंति-वायुकाय के चक्र में आ पड़ते हैं / य-फिर वे / फरिसंवायुकाय के स्पर्श को / पुट्ठा-स्पर्शित होते हैं / च, खलु-दोनों समुच्चयार्थक हैं / एगे-कोई एक जीव / संघायमावज्जंति-शरीर संकोच को प्राप्त होते हैं। जे-जो / तत्थ-वहां पर / संघायमावज्जंति-शरीर संकोच को प्राप्त होते हैं / ते-वे जीव / तत्थ-वहां पर /
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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