________________ 286 卐१ - 1 - 6 - 7 (55) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्राशन करनेवाले को / इच्चेते-यह सभी / आरम्भा-आरम्भ / परिणाया भवन्ति-परिज्ञात होते हैं। तं परिण्णाय-उस आरम्भ को परिज्ञात करके / मेहावी-बुद्धिमान / णेवसयं-न स्वयं / तसकाय सत्थं-सकाय शस्त्र का / समारम्भेज्जा-समारम्भ करे तथा / तसकाय सत्थं-त्रसकाय शस्त्र का / समारम्भते-समारंभ करने वाले / अण्णे-अन्य व्यक्ति का / णेव-नहीं। समणुजाणेज्जा-समर्थन करे / जस्सेते-जिसको यह / तसकाय समारंभा-प्रसकाय समारम्भ / परिण्णाया भवंति-परिज्ञात होते हैं / से हु मुणी-वह ही मुनी / परिण्णाय कम्मे-परिज्ञात कर्मा हैं / तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं / IV सूत्रार्थ : इस असकायमें शस्त्रका समारंभ करनेवालेने इन आरंभोकी परिज्ञा नहि करी है, और इस त्रसकायमें शस्त्रका समारंभ नहि करनेवालेने इन सभी आरंभोकी परिज्ञा की है / उसकायके आरंभको जानकर मेधावी (बुद्धिवाला) स्वयं त्रसकायके शस्त्रका आरंभ न करें, अन्योंके द्वारा त्रसकाय-शस्त्रका समारंभ न करवाये... और त्रसकायशस्त्रका आरंभ करनेवाले अन्यकी अनुमोदना न करें... जिस कीसीने भी इन सभी त्रसकायके समारंभको पहचाना है वह हि मुनि . परिज्ञातकर्मा है // 55 // v टीका-अनुवाद : इस सूत्रका भावानुवाद पूर्वकी तरह समझीयेगा... वह हि मुनी सकायके समारंभसे विरत है, कि- जिसने पाप-कर्मकी परिज्ञा करके प्रत्याख्यान (त्याग) कीया है..: यह बात केवलज्ञानसे साक्षात् हुआ है सकल त्रिभुवनका स्वरूप जिन्हें ऐसे त्रिलोकबंधु परमात्माके मुखसे सुनकर मैं सुधर्मास्वामी हे जंबू ! तुम्हे कहता हूं.... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या, दूसरे-तीसरे आदि उद्देशों के अन्तिम सूत्रवत् ही समझनी चाहिए / 'त्तिबेमि' की व्याख्या भी पूर्ववत् ही समझें / // शस्त्रपरिज्ञायां षष्ठः उद्देशक: समाप्तः // 卐 मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शझुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे.तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान