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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 6 - 5 (53) # 279 रहता है / भले ही, उसमें अनेक जीवों का नाश हो या उन्हें परिताप हो; वह यह नहीं देखता। क्योंकि- आतरता में उसकी दृष्टि धुंधली हो जाती है / अपने मानसिक विषय-वासना के अतिरिक्त उसके सामने कुछ रहता ही नहीं / इसी अपेक्षा से कहा गया कि विषय-वासना में आतुर व्यक्ति त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं / और पृथ्वी; पानी, वायु आदि के आश्रय में रहे हुए विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार से परिताप देते हैं / अतः हिंसा में प्रवृत्त होने का कारण आतुरता एवं वैषयिक मनोभावना ही है, ऐसा समझना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि- आतुरता हिंसा का कारण है / इसलिए मुमुक्षु पुरुष को आतुरता का त्याग करके हिंसा से दूर रहना चाहिए / उसे प्रत्येक कार्य धीरता के साथ विवेक एवं यतनापूर्वक करना चाहिए / इस संबन्ध में अन्य मतवालों की आचरणा का स्वरूप, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... I सूत्र // 5 // // 53 | लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो त्ति, एगे पवयमाणा जमिणं विसवसवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकाय-सत्थं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्ख पडिघायहेउं, से सयमेव तसकायसत्थं समारभति, अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेड, अण्णे वा तसकायसत्थं समारभमाणे समणुजाणड़, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अनगाराणं अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए, जमिणं विसवसवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति // 53 // II संस्कृत-छाया : लज्जमाना पृथक् पश्य, अनगाराः वयं इति एके प्रवदन्तः, यदिदं विरूपसपैः शौः असकायसमारम्भेण सकायशस्त्र समारभमाणाः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिनः विहिंसन्ति / तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, अस्य चैव जीवितव्यस्य परिवन्दन-मानन-पूजनार्थं, जातिमरण-मोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं, सः स्वयमेव असकायशस्त्रं समारभते, अन्यैः वा असकायशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा असकायशवं समारमाणान् समनुजानीते, तं तस्य अहिताय, तं तस्य अबोधये, सः तं सम्बुध्यमान: आदानीयं समुत्थाय, श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां अन्तिके इह एकेषां ज्ञातं भवति - एषः खलु ग्रंथः, एषः खलु मोहः, एषः खलु मारः, एषः खलु नरकः, इत्यर्थं गृद्धः लोकः, यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः प्रसकायसमारम्भेण असकायशस्त्रं समारभमाण:
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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