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________________ 256 // 1 - 1 - 5 - 8 (47) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जाता है / उसी तरह वनस्पतिका काटा हुआ हिस्सा भी कुमला जाता है, म्लान हो जाता है। इस तरह छेदन क्रियासे भी दोनोंके अंगोकी समान स्थिति होती है। आहारकी अपेक्षासे भी दोनोंमें समानता है / जैसे मनुष्यको समयपर पौष्टिक एवं अच्छा आहार मिलता रहे तो स्वस्थ एवं बलवान रहता है / उसी प्रकार वनस्पति को अनुकूल हवा, पानी, प्रकाश, मिट्टी एवं खाद मिलती रहे तो वह भी पल्लवित-पुष्पित एवं विकसित होती रहती है / प्रतिकूल आहार मिलने पर उसे भी रोग हो जाता है और उस रोगको औषध के द्वारा मिटाया भी जाता है / यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- मनुष्य तो आहार करता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु वनस्पति स्पष्ट रूप से आहार करती हुई नहीं दीखती / तो फिर वह आहार कैसे करती __इसका समाधान करते हुए आगममें बताया गया है कि वनस्पतिका मूल, पृथ्वी से संबद्ध है, अतः वह पृथ्वी से आहार लेकर उसे अपने शरीरके रूप में परिणमन करती है / मूल से स्कन्ध संबद्ध है, इसलिए वह मूलसे आहार ग्रहण करके उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करती है / इसी तरह शाखा, प्रशाखा, पत्ते, फूल, फल एवं बीज अपने अपने पूर्व से संबद्ध है, और वे उनसे आहार लेकर अपने शरीर रूप में परिणत करते हैं इसी तरह वनस्पतिकाय क्रम पूर्वक आहार करती है / जैसे मनुष्य थाली में से भोजन का एक व्यास हाथमें उठाकर मुंह में रखता है, फिर दांत चवर्ण करते हैं, जिह्वा आदि अवयव उसे गलेमें पहुंचाते है, वहांसे नीचे उतर कर पेटमें पहुंचता है, और वहां उसका रस, खून, वीर्य आदि पदार्थ बनकर शरीरमें यथा स्थान पर पहुंच जाते हैं / उसी तरह वनस्पतिकाय के जीव भी मूलके द्वारा पृथ्वीसे आहार ग्रहण करते हैं, फिर मूलसे स्कंध और स्कंधसे शाखा-प्रशाखा, पत्र पुष्प, फल और अपने-अपने पूर्व से ग्रहण कर लेते हैं / इस तरह वनस्पतिकायिक जीव भी आहार करते हैं और उसी के आधार पर अपने शरीरका निर्माण करते हैं / मनुष्य और वनस्पतिकाय दोनोंका शरीर अनित्य एवं अशाश्वत-अस्थिर है दोनों के शरीर में चय-उपचय होता रहता है / अनुकूल एवं प्रतिकूल आहार एवं वातावरण से दोनों के शरीर में हास एवं परिपुष्टता देखी जाती है / और दोनोंके शरीरमें अनेक प्रकार के परिवर्तन भी होते रहते हैं / इससे यह स्पष्ट हो गया कि वनस्पतिमें भी चेतना है / आजके वैज्ञानिक युग में तो . किसी प्रकार के संदेह को अवकाश ही नहीं रहता / भारतीय प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोसने वैज्ञानिक साधनोंसे जनता एवं वैज्ञानिकोंको वनस्पतिकी सजीवता को प्रत्यक्ष दिखा दिया। इससे जैनागमकी मान्यता परिपुष्ट होती है और साथ में यह भी प्रमाणित होता है कि
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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