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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 5 - 6 (45) // 247 सुखसे रोक नहिं सकता... और शब्दादि विषयोंसे अनिवृत्त ऐसा वह मनुष्य बार बार मन-वचनकायाकी क्रियासे विषय-गुण सुखका स्वाद लेता है... ऐसा होनेसे नरकादि गतिमें जानेवाला वह मनुष्य वक्र याने कुटिल (असंयमी) बन कर असंयमका आचरण करता है... कहा भी है कि- शब्द आदि विषयोंके अभिलाषी जीव वनस्पति आदि जीवोंको पीडा - दुःख देनेवाला होता शब्दादि विषय सुखके अंशके स्वादसे आसक्त ऐसा यह संसारी जीव अपथ्य आमफलको खानेवाले राजाकी तरह अपने आपको विषयोंसे रोक नहि शकनेसे तत्काल विनाशको प्राप्त करता है... इस प्रकार शब्दादि विषय सुखके आस्वादनसे अतिशय पराजित यह जीव खंत-पुत्रकी तरह जो करता है वह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : ___ यह हम ऊपर देख चुके हैं कि- जो शब्दादि विषयों में आसक्त रहता है, वह संयम से दूर ही रहता है / क्योंकि उसके त्रियोग की प्रवृत्ति, विषयों में होने से वह रात-दिन रूपरस आदि का आस्वादन करने में ही संलग्न रहता है / उसका मन सदा विषयों के चिन्तनमनन में लगा रहता है और वचन की प्रवृत्ति भी विषय सुख की और लगी रहती है और शरीर से भी विषयों का आनन्द लेने में अनुरक्त होने के कारण उस का आचार सम्यक् नहीं रहता। इसी कारण सूत्रकार ने विषयों में आसक्त व्यक्ति को "वंक-समायरे' वक्र अर्थात् कुटिल आचार युक्त कहा है / ‘वंक-समायारे' शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने कहा है कि कि - .. . "वक्र: = असंयमः कुटिलो नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्, समाचरणं समाचार:अनुष्ठानं, वकः समाचारो यस्यासौ वक्रसमाचार: असंयमानुष्ठायीत्यर्थः" अर्थात्-नरकादि गतिके हेतुभूत असंयम का ही दूसरा नाम वक्रसमाचार है / इससे स्पष्ट हुआ कि शब्दादि विषयों में आसक्त व्यक्ति असंयम में प्रवृत्त होता है / असंयम में प्रवृत्त होने से उसका परिणाम क्या होता है, इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 6 // // 45 // पमत्तेऽगारमावसे // 45 //
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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