________________ 244 卐१ -1 - 5 -3 (42) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 3. तिर्यक्- तिरछा याने घर- दिवाल आदिमें रहे हुए रूपको देखता है... तिर्यक् शब्दसे यहां चार दिशा एवं चार विदिशाएं समझीयेगा... इन सभी दिशाओं में आंखोसे दिख शके ऐसी रूपवाली वस्तुओंको मनुष्य आंखोसे देखता है... इसी प्रकार इन सभी दिशाओंमें रहे हुए शब्दोंको श्रोत्र = कर्ण (कान) से सुनता है... अन्यथा नहिं, अर्थात् आंखोंके विना देख नहिं शकता तथा कान के विना सुन नहिं शकता है... यहां उपलब्धि = प्राप्तिकी केवल बात है, और शब्द आदिकी प्राप्ति मात्रसे हि संसारमें परिभ्रमणा नहिं होती, किंतु यदि जीव शब्द आदिमें (राग या द्वेष करके) मूर्छित हो तब संसारमें परिभ्रमणा होती है... यहां 'अपि' शब्द संभावना अर्थमें है अथवा समुच्चय अर्थमें है... यहां रूप और शब्दका ग्रहण कीया है, इससे शेष गंध रस एवं स्पर्शका भी ग्रहण हो जाता है क्योंकि न्याय है कि- एक को ग्रहण करनेसे उनके जातिवालोंका भी ग्रहण हो जाता है... अथवा तो ' आदि और अंतके ग्रहणसे भी उनके बीच (मध्य) का भी ग्रहण हो जाता है, ऐसा स्वयं हि समझ लीजीयेगा... इस प्रकार विषय-लोकको कहकर अब प्रस्तुत बात सूत्रकार महर्षि कहेंगे... VI सूत्रसार शब्द आदि विषय किसी एक दिशा में उत्पन्न नहीं होतें, ऊर्ध्व, अधो और पूर्व-पश्चिम आदि सभी दिशा-विदिशा में उत्पन्न होते हैं और जीव, ऊपर-नीचे, दाएं, बाएं चारों और रूपसौन्दर्य का अवलोकन करता है, शब्दों को सुनता है, गन्ध को सूंघता है, रसों का आस्वादन करता है तथा विभिन्न पदार्थों का स्पर्श करता है / और इन्हें देख-सुन कर या सूंघ-चख कर या स्पर्श कर अनेक जीव उन विषयों में आसक्त हो जाते हैं, मूर्छित होने लगते हैं / प्रस्तुत सूत्र में दो बातें बताई गई हैं / एक तो विषयों का अवलोकन करना / उन्हें ग्रहण करना और दूसरा, उन अवलोकित विषयों में आसक्त होना. राग-द्वेष करना / इन दोनों क्रियाओं में बड़ा अंतर है / जहां तक अवलोकन का या ग्रहण करने का प्रश्न है, वहां तक यह विषय आत्मा के लिए दुःख रूप नहीं बनते, कर्म बन्ध का कारण नहीं बनते / यदि मांत्र देखने एवं ग्रहण करने से ही कर्म बन्ध माना जाएगा तब तो फिर कोई भी जीव कर्म बन्ध से अछूता नहीं रह सकता / संसार में स्थित सर्वज्ञों की बात छोड़िए, सिद्ध भगवान भी विषयों का अवलोकन करते हैं, क्योंकि- उनका निरावरण ज्ञान लोकालोक के सभी पदार्थों को देखता-जानता है और सिद्ध भी विषयों को ग्रहण करते (जानते) हैं अतः यदि विषयों को ग्रहण . करने मात्र से कर्म का बन्ध होता हो, तो फिर वहां भी कर्म बन्ध मानना पड़ेगा / और वहां कर्म का बन्ध होता नहीं / सिद्ध अवस्था में तो क्या तेरहवें गुणस्थान में भी कर्म बन्ध नहीं