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________________ 242 म 1 - 1 - 5 - 2 (41) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आयुष्य के बन्ध में बताए गए चार कारणों में सराग संयम को भी एक कारण बताया गया है और देवलोक भी संसार ही है / यह ठीक हैं कि, छठे गुणस्थान में प्रवृत्तमान साधु संसार को अधिक लम्बा नहीं बढ़ाता, परन्तु जब तक सरागता है तब तक शुभ कर्मका अनुबन्ध तो करता ही है इस अपेक्षा से वह संसार में भी वर्तता हुआ गुणों में भी प्रवृत्ति करता है / ___ यह सत्य है कि, वीतराग संयम में प्रवृत्तमान साधु या सर्वज्ञ संसार में प्रवर्तते हुए भी कर्म को नहीं बांधते और न स्वर्ग का द्वार ही खटखटाते हैं / क्योंकि उन्होंने राग-द्वेष का समूलतः उन्मूलन कर दिया है / राग-द्वेष कर्म वृक्ष का बीज है, मूल है और जब बीज एवं मूल ही नष्ट हो गया तब फिर कर्म की शाखा-प्रशाखा का पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होना तो असंभव ही है / इस दृष्टि से उनको कर्मों का बन्ध नहीं होता / उनमें राग-द्वेष का अभाव होने के कारण उस रूप में गुणों में प्रवृत्ति नहीं होती / परन्तु जब तक योग का व्यापार चालू है तब तक सामान्य रूप से तो गुणों में प्रवृत्ति होती हि है / बस; अन्तर इतना ही है कि राग-द्वेष युक्त जीवों को कर्म का बन्ध होता है और वीतराग पुरुषों को कर्म का बन्ध नहीं होता। या यों कहिए कि- उन की प्रवृत्ति ऐसे गुणों में नहीं होती, जो कर्म बन्ध के कारण है / अतः इस अपेक्षा से जो संसार में प्रवर्तते हैं वे गुणों में प्रवृत्तमान हैं, ऐसा कहना अनुचित एवं आपत्ति जनक प्रतीत नहीं होता / प्रस्तुत उद्देशक वनस्पतिकाय से सम्बन्धित है / अतः इसमें वनस्पतिकायिक जीवों सम्बन्धी वर्णन होना चाहिए / फिर इसमें शब्दादि विषयों का अप्रासंगिक वर्णन क्यों किया गया ? प्रस्तुत उद्देशक में शब्दादि गुणों का वर्णन. एक अपेक्षासे अप्रासंगिक प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविक में अप्रासंगिक नहीं है / क्योंकि- शब्दादि गुणों की उत्पत्ति का मूलस्थान प्रायः वनस्पतिकाय है / अर्थात् समस्त विषयों की पूर्ति वनस्पति से ही होती है / व्यवहार इस सत्य को स्पष्टतया प्रमाणित कर रहा है / जैसे कि- अपनी मधुर ध्वनि से श्रोत्र इन्द्रिय को तृप्त करने वाली वीणा आदि विभिन्न वाद्यों का निर्माण वनस्पतिकायसे ही होता है और वनस्पतिकाय के हि आधार स्तंभों पर चित्रित मनोहर चित्र एवं फर्नीचर से सुसज्जित कमरों को देखते हुए आंखें थकती नहीं / घ्राण इन्द्रिय को तृप्त करने वाले केसर, चन्दन तथा विभिन्न रंग-बिरंगे सुवासित फूल वनस्पति के ही अनेक रूप हैं / जिह्वा के स्वाद की तृप्ति करने वाले विविध व्यञ्जन एवं पक्वान्न, वनस्पति से ही बनते हैं / और स्पर्श इन्द्रिय को सुख पहुंचाने वाले तथा शीत-ताप से बचाने वाले एवं सुशोभित करने वाले विभिन्न रंग एवं आकार के सूत से बने वस्त्र, वनस्पति की ही देन है। इस प्रकार जब हम गहराई से सोचतेविचारते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि शब्दादि विषयों का वनस्पति के साथ सीधा संबन्ध है
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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