________________ 238 // 1-1 - 5 - 2 (41) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अन्यत्र नहीं मिलता / यह हम पहले ही बता चुके है कि पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा में सावधानी एवं विवेक जैनेतर संप्रदाय के साधओं में नहीं पाया जाता / अतः उत्कट त्याग वृत्ति को जीवन में साकार रूप देने वाले तथा सावध कार्यों से सर्वथा निवृत्त साधुओं को विशिष्ट त्यागी एवं वास्तविक अनगार कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है और न किसी सम्प्रदाय के साधु की अवहेलना करने का ही भाव है / "एस अणगारेत्ति पवुच्चई' का अर्थ है-जो साधक वनस्पतिकाय की हिंसा से निवृत्त है, किसी भी प्राणी को भय नहीं देता है, वही सच्चा अनगार कहा गया है / अनगार के स्वरूप का वर्णन करके अब, सूत्रकार महर्षि संसार एवं संसार-परिभ्रमणा के कारण के संबन्ध में आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 41 // जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे // 41 // II संस्कृत-छाया : यः गुणः सः आवतः, यः आवतः, सः गुणः // 49 // III शब्दार्थ : जे-जो / गुणे-शब्दादि गुण / से-वह / आवझे-आवर्त-संसार है / जे-जो / आवट्टे-संसार है / से-वह / गुणे-गुण है / IV सूत्रार्थ : जो गुण है वह हि आवर्त है, एवं जो आवर्त है वह हि गुण है.... v टीका-अनुवाद : जो शब्दादि गुण है, वह हि जीव जहां परिभ्रमणां करतें हैं ऐसा आवर्त है... याने संसार है... यहां कारणमें कार्यका उपचार कीया गया है... जैसे कि- नइवलोदक हि पादरोग है...' इसी प्रकार यह शब्द रूप गंध रस एवं स्पर्श आदि गुण हि, आवर्त याने संसार है... क्योंकि शब्दादि गुण संसार याने आवर्तके कारण हैं..... यहां एक-वचनका प्रयोग इसलिये किया है कि- जो पुरुष शब्दादि गुणोमें प्रवृत्त होता है वह हि पुरुष, आवर्त याने संसारमें रहता है, और जो पुरुष संसारमें रहता है, वह हि शब्दादि विषय-गुणोमें प्रवृत्त होता है...