________________ 224 1 -1 - 5 - 1 (40) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 5 वनस्पतिकाय चतुर्थ उद्देशक पूर्ण हुआ, अब पांचवे उद्देशकका आरंभ करते हैं... यहां अनंतर (पूर्वके) उद्देशकमें अग्निकायका स्वरूप कहा, अब संपूर्ण साधुके गुणोंकी प्राप्तिके लिये क्रमानुसार वायुकायका स्वरूप कहनेकी जगह वनस्पतिकायका स्वरूप कहतें हैं... प्रश्न- यहां क्रमका उल्लंघन क्यों कीया ? उत्तर- यह वायुकाय आंखोसे दिखता नहिं है, अतः वायुकी श्रद्धा दुःशक्य है, इसीलिये पृथ्वीकाय अप्काय, तेउकाय एवं वनस्पतिकाय आदि सभी एकेंद्रिय जीवोंके स्वरूपको जाननेके बाद हि वायुकायका बोध सरल बनता है... और क्रम वह हि हो शकता है कि- जीस क्रमसे शिष्य जीवादि तत्त्वोंको जानने-समझनेमें उत्साहित हो... और वनस्पतिकाय तो आबालवृद्ध सभी लोकको स्पष्ट चिह्नोंसे दिखाई देता है, अतः अग्निकायके बाद वनस्पतिकायका स्वरूप कहतें हैं... इस संबंधसे आये हुए इस पांचवे उद्देशकके चार अनुयोग द्वार तब तक कहना चाहिये कि- जब तक नाम निष्पन्न निक्षेपमें वनस्पति-उद्देशकका निरूपण (कथन) आये... अब वनस्पतिकायके भेद-प्रभेदका विस्तार कहनेके लिये, पहले कहे हए सिद्ध अर्थोके अतिदेश (हवाला) के माध्यमसे नियुक्तिकार कहतें हैं... नि. 126 पृथ्वीकायको समझनेके लिये जीतने द्वार कहें हैं, वे सभी वनस्पतिकायमें भी होतें हैं, किंतु जहां विभिन्नता है, वह प्ररुपणा, परिमाण, उपभोग, शस्त्र और लक्षण द्वार विस्तारसे कहतें हैं... उनमें प्रथम प्ररूपणा का स्वरूप कहते हुए, नियुक्तिकार महर्षि नियुक्ति गाथा कहतें हैं... नि. 127 इस जगतमें वनस्पतिकायके मुख्य दो भेद हैं... 1. सूक्ष्म वनस्पतिकाय 2. बादर वनस्पतिकाय...