________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 3 - 10 (28) 189 - यदि कोई साधु कूए या वावडी के मालिक की आज्ञा लेकर पानी का उपयोग कर ले तो इसमें तो उसे चोरी का दोष नहीं लगेगा ? हमें ऊपर से मालूम होता है कि हम ने आज्ञा ले ली, परन्तु, वास्तव में ऐसी स्थिति में भी चोरी है / क्योंकि हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि अप्काय के शरीर पर तो उसी अप्काय जीवों का अधिकार है / कुएं के मालिक ने तो ज़बरदस्ती अपना अधिकार जमा रखा है / उन्हों ने अपना जीवन स्वेच्छा से उसे नहीं सौप दिया है / अतः कुएं के मालिक से पूछ कर भी सचित्त पानी का उपयोग करना चोरी है / . अप्काय के जीवों की आज्ञा नहीं है और साथ में तीर्थंकर भगवान की भी सचित्त पानी का उपभोग करने की आज्ञा नहीं है / यहां तक कि प्राण भी चले जाएं तब भी साधु सचित्त जल पीने का विचार तक न करें / अतः सचित्त जल का उपयोग करता जिन-आज्ञा का उल्लंघन करना है, इस लिए इसे भगवान की आज्ञा का भंग भी माना गया है / यह सारा आदेश साधु के लिए है, गृहस्थ के लिए नहीं / क्योंकि साधु एवं गृहस्थ की अहिंसा में अन्तर है / साधु हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है और गृहस्थ उसका एक देश से त्याग करता है / वह एकेन्द्रिय की हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता और अस जीवों की हिंसा में भी वह निरपराधी प्राणियों की निरपेक्ष बुद्धि से हिंसा करने का त्याग करता है। अर्थात् शेष हिंसा का त्याग नहीं होता, क्योंकि- अपने परिवार एवं देश पर आक्रमण करने वाले शत्रु के आक्रमण का मुकाबला-सामना करना, गहस्थ के लिए अनिवार्य है / साधु को एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों की हिंसा का त्याग होता है / जैसे साधु और गृहस्थ के जीवन में अहिंसा की साधना में अंतर रहा हुआ है, उसी तरह अचौर्य व्रत में भी अन्तर है। साधु को सचित्त जल का त्याग है, इस लिए उसका उपभोग करने में हिंसा के साथ चोरी भी लगती है / परन्तु गृहस्थ ने अभी ऐसी सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं किया है / ___अतः प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए यह निर्देश किया है कि- साधु सचित्त जल का उपभोग न करे / क्योंकि- अप्काय-जल का आरंभ-समारंभ करने में हिंसा होती है और साथ में चोरी का भी दोष लगता है / अन्य सांप्रदायिक विचारकों का इस विषय में क्या मन्तव्य है. यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 10 // // 28 // कप्पड़ णे कप्पड़ णे पाउं, अदुवा विभूसाए // 28 // II संस्कृत-छाया : कल्पते नः कल्पते नः पातुम्, अथवा विभूषायै // 28 //