________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-1-3-1(19) 161 प्रश्न- तो फिर प्रज्ञापना सूत्रमें क्यों ऐसे भेद-प्रभेद है ? * उत्तर- स्त्री, बच्चों एवं अल्प मतिवाले जीवोंको समझानेके लिये ऐसे भेद-प्रभेद लिखे हैं... प्रश्न- तो फिर यहां आचारांगमें क्यों नहि लिखे ? उत्तर- प्रज्ञापना सूत्र उपांग है, अतः आर्ष याने स्थविर-ऋषिओंका बनाया हुआ है, इसलिये वहां स्त्री, बालक एवं मंदमतिवालोंके उपकारके लिये सभी भेद, प्रभेदोंका लिखना युक्तियुक्त हि है... और नियुक्ति तो सूत्रके अर्थोके समूहको करती हुइ चलती है... अतः यहां संक्षेप से कहने में दोष नहि है... वे बादर अपकाय संक्षेपसे दो प्रकारके है... 1. पर्याप्त बादर अप्काय. 2. अपर्याप्त बादर अप्काय... उनमें जो अपर्याप्त हैं वे वर्ण गंध आदिको अप्राप्त हैं, जब कि- जो पर्याप्त बादर अप्काय हैं वे वर्ण-गंध आदिको प्राप्त करनेके कारणसे हजारों भेद-प्रभेद वाले होते हैं, और उनके संख्येय (सात (7)) लाख योनीयां हैं और वे संवृत स्वरूपवाली होती हैं, और वे सचित, अचित और मिश्र भेदसे तीन प्रकारसे है, और फिर वे भी शीत, उष्ण और शीतोष्ण भेदसे तीन प्रकारसे है... इसी प्रकार गिनती करनेसे सात लाख योनीयां होती है... अब प्ररूपणाके बाद परिमाण द्वार कहते हैं... नि. 109 पर्याप्त बादर अप्काय- संवर्तित (घनीकृत) लोकाकाशके प्रतरके असंख्येय भाग प्रदेशके राशि प्रमाण है... शेष तीन (अपर्याप्त बादर अपकाय, पर्याप्त सूक्ष्म अपकाय और अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय) एक एक राशि असंख्य लोकाकाश प्रदेशके राशि प्रमाण है... विशेष यह है कि- पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय से पर्याप्त बादर अप्काय जीव असंख्येय गुण अधिक है... तथा अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायसे अपर्याप्त बादर अप्काय जीव भी असंख्येय गुण अधिक हैं, और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायसे से अपर्याप्त सूक्ष्म अप्काय विशेषाधिक है... तथा पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायसे पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायजीवों की संख्या विशेषाधिक है... (विशेषाधिक याने पुरे द्विगुणसे कुछ कम...) अब परिमाण द्वारके बाद लक्षण द्वार कहते हैं... नि. 190 प्रश्न- अप्काय जीव नहि है, क्योंकि- कोई लक्षण घटित (मालुम) नहि होता है... और उमडकर बहता है... इस हेतुको निराश करनेके लिये दृष्टांतसे समझातें है कि- जैसे कि- हाथीका शरीर उत्पत्तिके प्रारंभ अवस्थामें जो कलल अवस्था होती है तब उत्पन्न