________________ 158 # 1 - 1-2 - 5 (18)' श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को हम पहले ही बता चुके हैं कि- ज्ञान का महत्त्व त्याग के साथ है / अत: पहले पृथ्वीकाय के स्वरूप को एवं हिंसा से होने वाले कर्म बन्ध को भली-भांति जाने और जानने के बाद आरंभ-समारंभ का त्याग करें / इससे यह स्पष्ट होता है कि- जो व्यक्ति पृथ्वीकाय के आरंभ-समारंभ में प्रवृत्तमान हैं, वे अपरिज्ञात कर्मा है / अर्थात् न तो उन्हें पृथ्वीकाय के स्वरूप का ही सम्यक् बोध है और न आरंभ-समारंभ का ही त्याग है / इस लिए वे अनेक तरह के शस्त्रों से पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन करके उसे दुःख, कष्ट एवं पीड़ा पहुंचाते हैं और पाप कर्मों का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करते हैं / क्योंकि जब वे पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं, तो उसके साथ उसके आश्रित अन्य स एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा होती है / ऐसा जानकर प्रबुद्ध पुरुष या मुनि पृथ्वीकाय की न स्वयं हिंसा करे, न दूसरे व्यक्ति से हिंसा करावे, और हिंसा करने वाले व्यक्ति को अच्छा न समझें / यह प्रस्तुत सूत्र का सार है / यों भी कह सकते हैं कि त्रिकरण और त्रियोग से आरंभ-समारंभ का त्याग करना ही जीवन का, साधना का, संयम का सार है / ऐसा मैं कहता हूं / // शत्रपरिज्ञायां द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः || : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058.