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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-१-२-१(१४)॥ 137 भाव परिघून... ज्ञानावरणीयादि कर्मोके उदयसे प्रशस्त ज्ञानादि गुणोसे विकल-हीन... यह विकलता अनंतगुण परिहाणीसे अनेक प्रकारसे है... वे इस प्रकार- पंचेंद्रिय जीव से चौरिंद्रिय जीव ज्ञानसे विकल = हीन है, चउरिंद्रियसे तेइंद्रिय जीव, तेइंद्रियसे बेइंद्रिय जीव, बेइंद्रियसे एकेंद्रिय जीव ज्ञान-विकल है, और एकेंद्रियमें भी अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीव उत्पत्तिके प्रथम समयमें सभी जीवोंसे अति अल्प ज्ञानगुणवाले होते हैं... कहा भी है कि- सर्वज्ञ तीर्थंकर श्री महावीर प्रभुजीने केवलज्ञानके प्रकाशमें देखा है कि- सभी संसारी जीवोंमें सभी से अल्प ज्ञानोपयोग सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद (वनस्पति) जीवोंको होता है... उनसे क्रमशः अधिक अधिक ज्ञानकी वृद्धि, लब्धि निमित्तक करण स्वरूप शरीर इंद्रियां वाणी एवं मनोयोग वाले जीवोंको होती है..... अब प्रशस्तज्ञानधुन जीव विषय-कषायोंसे पीडित हुआ किस प्रकारका होता है वह कहते हैं... मेतारज मुनि की तरह वह जीव बडी मुश्केलीसे धर्माचरणका स्वीकार करता है... अथवा तो ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह कोई भी उपायसे समझाया जा नहिं शकता... क्योंकिऐसा जीव विशिष्ट ज्ञान-बोध से हीन होता है... - ऐसा जीव क्या करता है ? वह कहते हैं... सभी आरंभ समारंभका आश्रय-आधार पृथ्वी है, अतः कृषि = खेत-वाडीको खोदना तथा घर बनाने के लिये भूमीका खनन कार्य आदि भिन्न भिन्न प्रकारसे पृथ्वीकाय जीवोंको पीडा पहुंचाता है... हे शिष्य ! देखो। इस जगतमें विषय एवं कषायोंसे व्याकुल जीव, पृथ्वीकायको अनेक प्रकारसे दुःख देते हैं... ___ कोइक जीव विषय-कषायसे पीडित हैं... कोइक जीव वृद्धावस्थासे पीडित है... कोइक जीव बहुत कठीनाइसे समझता है... कोइफ जीव समझाने पर भी नहि समझता है... अज्ञानी लोग, विषय-कषाय एवं वृद्धावस्थाके कारणसे अनेक प्रकारसे पृथ्वीकाय जीवोंको संताप देते हैं... पीडा पहुंचाते हैं... यावत् उनका वध करतें हैं... प्रश्न- एक देवता (जीव) विशेष स्वरूप पृथ्वी है ऐसा मान शकतें हैं किंतु असंख्य जीवोंका पिंड-समूह स्वरूप पृथ्वी कैसे माना जाय ? इस प्रश्नका उत्तर, अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र का पिछले सूत्र के साथ क्या संबन्ध है, यह हम द्वितीय उद्देशक की भूमिका में स्पष्ट कर चुके हैं / वह इस प्रकार- प्रथम उद्देशक में सामान्य रूप से आत्मा के अस्तित्व का तथा आत्मा का लोक, कर्म और क्रिया के साथ किस तरह का संबन्ध है और यह आत्मा संसार में क्यों परिभ्रमण करती है, इस बात को समझया गया है / कर्मबन्धन की कारणभूत
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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