________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-2 - 1 (14) 135 जो साधु-लोग मन-वचन एवं काया यह तीन गुप्तिसे गुप्त होकर तथा ईयर्यासमिति आदि पांच समितिओंसे युक्त होकर पृथ्वीकायका वध स्वयं नहिं करते, नहि करवातें और अनुमोदन भी नहिं करतें वे हि सच्चे साधु हैं... वे साधु लोग सावधानीसे उठना-बैठना-सोना-आना-जाना इत्यादि क्रियाएं करतें हैं... इस प्रकार जिनकी क्रियाएं सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे युक्त होती हैं वे हि अनगार-साधु है... किंतु पृथ्वीकायका वध करनेवाले शाक्य आदि मतवाले साधु सच्चे साधु. नहिं हैं... नाम निष्पन्न निक्षेप पूर्ण हुआ... अब सूत्रके अनुगममें अस्खलित पदोंका उच्चारण करना चाहिये और वह सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 14 // अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सिं लोए पव्वहिए, तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परिताउँति // 14 // II संस्कृत-छाया : ___ आर्तः लोकः परिघुनः (परिजीर्णः) दुस्संबोधः अविज्ञायकः अस्मिन् लोके प्रव्यथिते तत्र-तत्र पृथक् पश्य आतुराः परितापयन्ति / III शब्दार्थ : अट्टे-आर्त-पीड़ित / परिजुण्णे-प्रशस्त ज्ञानादि से हीन / दुस्संबोहे-कठिनता से बोध प्राप्त करने वाले / अविजाणए-विशिष्ट बोध रहित / पव्वहिए-विशेष पीड़ित / अस्सिं लोएइस पृथ्वीकाय लोक में / तत्थ-तत्थ-खनन आदि उन-उन / पुढो-भिन्न 2 कारणों के उत्पन्न होने पर / परितावेंति-पृथ्वीकाय के जीवों को परिताप देते हैं / पास-हे शिष्य ! तू देख / IV सूत्रार्थ : आर्त परिधुन दुःसंबोध और अविज्ञात ऐसे यह जीव इस लोकमें बहुत हि व्यथित हैं, हे शिष्य ! देखो उन उन स्थानोमें (विषयोंसे) आतुर लोग (पृथ्वीकाय जीवोंको) दुःख देतें है... // 14 // V टीका-अनुवाद : ___ यहां पूर्वक सूत्रमें कहा कि- मुनि परिज्ञातकर्मा होता है... और जो मुनि अपरिज्ञातकर्मा होता है वह भवात याने संसारसे पीडित होता है... एवं यह बात सूत्र नं. 1 से संबंधित है, अतः पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- श्री वर्धमान स्वामीजीके मुखसे मैंने जो सुना है, वह मैं तुम्हे कहता हुं...