________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 2 - 1 (14) म 123 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 2 卐 पृथ्वीकाय // पहला उद्देशक कहा, अब दुसरे उद्देशक का कथन कीया जा रहा है- इसका यह परस्पर संबंध है कि- पहले उद्देशकमें सामान्यसे जीवका अस्तित्व सिद्ध कीया... अब इसी जीवके एकेंद्रियादि भेद तथा पृथ्वीकाय आदि प्रभेदोंका अस्तित्व प्रतिपादन करनेकी इच्छासे कहते हैं कि- पहेले उद्देशक में कहा कि- परिज्ञातकर्मत्व हि मुनित्वका कारण है, अतः जो अपरिज्ञातकर्मा है, वह मुनि नहिं है, जो जीव, विरतिको स्वीकारता नहिं है... इससे वह पृथ्वीकाय आदिमें भटकता है... अब यह पृथ्वीकाय आदि कौन है ? इस प्रश्नके अनुसंधान में पृथ्वीकायका अस्तित्व दिखाते हुए यह द्वितीय उद्देशक कहते हैं... इस संबंधसे आये हुए इस दुसरे उद्देशकके चार अनुयोग द्वार कहना है, किंतु यह सभी पूर्व कहे जा चुके है अतः जो विशेष है वह कहते हैं... नाम निष्पन्न निक्षेपमें पृथ्वी-उद्देशक... इसमें उद्देशक के निक्षेपे भी कहे जा चुके हैं... अतः यहां नहिं कहते हैं किंतु “पृथ्वी' के जो कुछ निक्षेपे होते हैं वह नियुक्तिकार स्वयं हि नियुक्तिकी गाथाओंसे कहते हैं... नि. 68 पृथ्वी निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, शस्त्र, वेदना, वध और निवृत्ति... जीवके उद्देशकमें जीवकी प्ररूपणा क्यों नहिं की ? ऐसी शंका न करें क्योंकि-जीव-सामान्यका आधार जीव विशेष है और वे पृथ्वी आदि स्वरूप है... और जीवसामान्यका उपभोग हो हि नहिं शकता, अतः पृथ्वी आदिके भेद-प्रभेदसे विचार कीया जाता है... पृथ्वी के... नाम आदि निक्षेप... सूक्ष्म बादर आदि भेदसे प्ररूपणा... साकार-अनाकार उपयोग तथा काय योगादि लक्षण... घनीकृत लोकाकाशके प्रतरके असंख्येयभाग मात्र परिमाण... शयन आसन और आवागमन से उपभोग... स्नेह, अम्ल और क्षार आदि शस्त्र... अपने शरीरमें अव्यक्त चेतना स्वरूप सुख और दुःखका अनुभव... वेदना... करना, करवाना और अनुमोदनसे जीवोंका उपमर्दन याने वध-पीडा... वध... तथा मन-वचन और काय गुप्तिसे अपमत्त साधु जो जीवोंको दुःख नहिं पहुंचाता... वह निवृत्ति...