________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐 1 - 1 - 1 - 13 // 121 सकता है- चाहे वह गन्तव्य स्थान लौकिक हो या लोकोत्तर / ___ मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए आगम में कहा गया है कि "वन में निवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, अपितु ज्ञान से मुनि होता है।" जिस साधु के जीवन में ज्ञान का प्रकाश है, आलोक है वह मुनि है, भले ही वह जंगल में रहे, पर्वतों की गुफाओं में रहे या गांव एवं शहर में रहे / स्थान के भेद से उसके जीवन में कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि उसके जीवन में ज्ञान है / टीकाकार शीलांकाचार्यजी ने मुनि शब्द की यही परिभाषा की है / उन्होंने लिखा है कि 'जो मननशील है या लोक की, जगत की त्रिकालवर्ती अवस्था को जानने वाला है, वह मुनि है / ' इससे यह स्पष्ट हो गया कि जिस साधक को क्रिया की हेयउपादेयता का सम्यक्तया परिबोध है और जो परिज्ञा-विवेक के साथ संयमसाधना में प्रवृत्त है, वह मुनि है और वही मुनि परिज्ञात-कर्मा है / क्रिया संबन्धी सम्पूर्ण प्रकरण का निष्कर्ष यह है कि साधक कर्म बन्धन की हेतु भूत क्रिया के स्वरूप का सम्यक्तया बोध करके उससे निवृत्त होने का प्रयत्न करे / क्यों कि प्रत्येक साधक का मुख्य उद्देश्य क्रिया मात्र से सर्वथा निवृत्त होना है, आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करना है या सीधी-सी भाषा में कहें तो निर्वाण पद को प्राप्त करना है / इसलिए साधक की साधना में तेजस्विता एवं गति पाने के लिए प्रस्तुत प्रकरण में संसार में परिभ्रमण कराने की कारणभूत क्रिया के स्वरूप को जान-समझ कर त्यागने की प्रेरणा दी गई है / 'इति ब्रवीमि' का अर्थ है-इस प्रकार मैं तुम से कहता हूं / इसका तात्पर्य स्पष्ट रूप . से यह है कि- आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कह रहे हैं कि-हे जम्बू ! मैंने जो कुछ तुम्हें कहा है, वह जैसा भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही कहा है, मैं अपनी तरफ से कुछ नहीं कह रहा हूं / 'इति ब्रवीमि' शब्द में यही रहस्य अन्तर्निहित है / और इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि- आगम के अर्थ रूप से उपदेष्टा तीर्थंकर ही होते हैं, गणधर केवल उनके उपदेश को सूत्र रूप में व्यथित करते हैं / यही बात सूत्रकार ने 'तिबेमि' शब्द से अभिव्यक्त की है / // शस्त्रपरिज्ञायां प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन .. श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान