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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका क 1-1-1 - 11 117 याचनाको पूर्ण करने लिये अजः बकरा आदिकी बलि देता है... जिस प्रकार यशोधर राजाने गेहुं के आटेसे बनाये हुए कुकडे का बलि दीया था... ऐसा करने से वे, मरण से छूटने के बजाय अनेक मरणोंको पानेवाले हुए, तथा मुक्तिके लिये... अज्ञानी जीव, जीवोंका वध करनेवाले पंचाग्नि तपके अनुष्ठानादिमें प्रवृत्त होते हुए कर्म बांधते है... अथवा तो जन्म और मरणको दूर करनेके लिये हिंसा आदि क्रियाएं करता है... यहां पाठांतरमें "भोजनके लिये" इस पदका भावार्थ- इस प्रकार है- कृषि (खेती) आदि कार्यों में प्रवृत्ति करनेवाला वह मनुष्य पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रिय और पंचेंद्रियके वधमें प्रवृत्त होता है.... ____ तथा दुःखको दूर करनेके लिये एवं आत्माके रक्षणके लिये जीवों का वध-आरंभ करता है... वे इस प्रकार- व्याधि-रोगोंसे पीडित जीव लावक का मांस और मदिरा का पान करता है, और वनस्पति, मूल, छाल, पत्ते और रस आदिसे सिद्ध शतपाक आदि तैलोंके लिये अग्नि आदिके समारंभसे स्वयं पाप करते हैं, दुसरोंसे पाप करवाता है, और स्वयं पापोंको करनेवाले अन्य लोगोंकी अनुमोदना करते हैं... इसी प्रकार- भूतकाल तथा भविष्यत्कालमें भी मन-वचनकाययोगोसें कर्मोका ग्रहण करता है... तथा दुःखके विनाशके लिये और सुखको पानेके लिये स्त्री, पुत्र और घरकी छोटी-बडी सभी चीज-वस्तुओका संग्रह करता है... इन वस्तुओंकी प्राप्ति एवं सुरक्षाके लिये उन उन क्रियाओंमें प्रवृत्त होनेवाला यह जीव पाप कर्मोका आसेवन करता है... कहा भी है कि- गृहस्थोंको सर्व प्रथम प्रतिष्ठाकी प्राप्तिके लिये प्रयास होता है, और बादमें पत्नीको पानेके लिये, और इसके बाद पुत्र प्राप्तिके लिये प्रयास होता है... इसके बाद उन पुत्रोंमें गुण-प्रकर्ष तथा शिक्षाके लिये प्रयास होता है और अंत में उंचे पदकी प्राप्तिके लिये प्रयास होता है... इस प्रकारके अनेक क्रियाओंसे विविध कर्मोंका बंध करके अनेक दिशाओंमें संचरण करता है, अनेक प्रकारकी योनीओंमें उत्पन्न होता है और वहां विरूप (कठोर) स्पर्शोंकी पीडाओंको भुगतता है... इस प्रकार यह बात जानकर विविध पाप-क्रियाओंसे निवृत्ति करना चाहिये... इतनी हि क्रियाएं है, यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है, मरना कोई नहीं चाहता / सभी प्राणीयों को जीवन प्रिय है / प्रत्येक प्राणी अपने जीवन को बना रखने का यथासंभव प्रयत्न करता है / अपने आपको
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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