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________________ 1 - 1 - 1 - 6 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - इस का समाधान यह है कि- प्रस्तुत सूत्र में तीन च-कार और एक अपि शब्द का प्रयोग किया गया है / इन च-कार एवं अपि शब्दों से तीनों कालों की प्रयुक्त क्रिया में अवशिष्ट क्रियाओं का बोध हो जाता है / सूत्र को अधिक लम्बा एवं शब्दों से अधिक बोजिल न बनाने के लिए क्रिया के मुख्य 3 - कृत, कारित और अनुमोदित भेदों का उल्लेख करके, शेष भेदों को च एवं अपि शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया है / यह हम पहले बता चुके है कि आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध सूत्र रूप रचा गया है; थोड़े शब्दों में अधिक भाव एवं अर्थ व्यक्त किया गया है / वस्तुतः सूत्र का तात्पर्य ही यह है कि थोड़े से थोड़े शब्दों में अधिक बात कही जाए। आवश्यकता से अधिक शब्दों का प्रयोग न किया जाए / इसी दृष्टि को सामने रखकर सूत्रकार ने च एवं अपि शब्द से स्पष्ट होने वाले 6 क्रिया भेदों के लिए शब्द रचना न करके उसे तीन भेदों के द्वारा अभिव्यक्त किया है / हां, यह समझ लेना आवश्यक है कि किस च-कार से किस क्रिया का ग्रहण करना चाहिए / ___ “अकरिस्सं चऽहं' में प्रयुक्त 'च-कार' भूतकालीन 'कारित और अनुमोदित' क्रिया का परिबोधक है / “कारवेसु चऽहं' यहां व्यवहृत 'चकार' वर्तमान कालिन 'कृत और अनुमोदित' क्रिया का परिचायक है। और "करओ आवि (चापि)" इस पद में प्रयोग किया गया ‘चकार' भविष्यत कालीन ‘कृत और कारित' क्रिया का संसूचक है / और प्रस्तुत सूत्र में दिये गये ‘अपि' शब्द से मन, वचन और काया- शरीर इन तीन योगों के साथ क्रिया के नव भेदों के सम्बन्ध का परिबोध होता है / इस तरह थोड़े से शब्दों में सूत्रकार ने क्रिया के 27 भेदों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर दिया है और इसी आधार पर हि क्रिया के 3x3x3=27 भेद माने गए हैं / प्रस्तुत सूत्र में भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल सम्बन्धी क्रमशः कृत, ,कारित और अनुमोदित एक-एक क्रिया का वर्णन करके चकार एवं अपि शब्द से अन्य क्रियाओं का निर्देश कर दिया है / परन्तु शीलांकाचार्यजी को यह अभिमत है कि- प्रस्तुत सूत्र में भूत और भविष्यत् दो कालों की और निर्देश किया है / उन्होंने प्रस्तुत सूत्र की संस्कृत छाया इस प्रकार बनाई है "अकार्षं चाऽहं, अचीकरम् चाऽहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि" शीलांकाचार्यजी के विचार से “अकरिस्सं-अकार्षम्" यह भूतकालिक कृत क्रिया है और 'कारवेसुं-अचीकरम्' यह भूतकालीन कारित क्रिया है / और 'करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि' यह भविष्यत् कालीन अनुमोदित क्रिया है / इस तरह सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में दो कालों का निर्देश किया है, तीसरे वर्तमान काल का ग्रहण उन्होंने इस न्याय से किया है कि आदि और अन्त का ग्रहण करने पर मध्यमवर्ती का ग्रहण हो जाता है /
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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