________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 4 // VI सूत्रसार : ज्ञानावरणीय आदि कर्म से आवृत यह आत्मा अनंत काल से अज्ञान अंधकार में भटक रही है, संसार में इधर-उधर ठोकरें खा रही है और जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान है / किन्तु जब आत्मा शुभ विचारों में परिणति करता है, सत्कार्य में प्रवृत्त होता है, अपने चिंतन को नया मोड़ देता है और साधना के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म के पर्दे को अनावृत्त करने का प्रयत्न करता है और जब फलस्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, तब आत्मा में अपने स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और साधना के द्वारा एक दिन वह अपने स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण करने में सफल भी हो जाता है और वह इन सभी बातों को जान लेता है कि- मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? और कहां जाऊंगा ? इत्यादि। आत्मा के उक्त विकास में मोहनीय एवं ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अंतरंग कारण है / उक्त घातिकर्म के क्षयोपशम के बिना आत्मा अपने आप को पहचान ही नहीं सकता। परंतु इस स्थिति तक पहुंचने में इस अंतरंग कारण के साथ देवगुरु आदि बहिरंग कारण भी सहायक हैं / उनका सहयोग भी आत्मविकास के लिए जरूरी है / अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अंतरंग एवं बाह्य दोनों निमित्तों की अपेक्षा है / दोनों साधनों की प्राप्ति होने पर अज्ञाभ का पर्दा विनष्ट होने लगता है और ज्ञान का प्रकाश फैलने लगता है और उस उज्जवल-समुज्जवल ज्योति में आत्मा अपने पूर्व भव में किये हुए, पशु-पक्षी एवं देव-मनुष्य के भवों को देखने लगता है / वह भली भांति जान लेता है कि- मैं पूर्व भव में कौन था ? किस योनि में था ? वहां से कब चला ? इत्यादि बातों का उसे परिज्ञान हो जाता है। ज्ञान प्राप्ति में कारणभूत अंतरंग एवं बहिरंग साधनों का ही प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया गया है / किंतु उक्त कारणों को अंतरंग और बहिरंग दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त नहीं किया गया है / फिर भी प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान प्राप्ति के जो साधन बताएं हैं, वे साधन अंतरंग एवं बहिरंग दोनों तरह के हैं / सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान प्राप्ति में तीन बातों को निमित्त माना है-१ सन्मति या स्वमति, 2 पर-व्याकरण और 3 परेतर-उपदेश / सन्मति शब्द दो पदों के सुमेल से बना है-सद्-मति / सद् शब्द प्रशंसार्थक हैं और मति शब्द ज्ञान का बोधक है / साधारणतः ज्ञान प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है / क्योंकि वह आत्मा का लक्षण है, गुण है / उसके अभाव में आत्मा का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। अतः सामान्यतः ज्ञान का अस्तित्व समस्त आत्माओं में हैं, परंतु यह बात अलग है कि- कुछ आत्माओं में सम्यग् ज्ञान है और कुछ में मिथ्या ज्ञान है। मति-श्रुत ज्ञान भी ज्ञान के अवान्तर भेद हैं / ये यदि सम्यग् हों तो इनसे भी आत्मा के वास्तविक तत्त्वों का परिबोध होता है,