________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-1-3 69 कितनेक लोग कहते हैं कि- जीव आदि पदार्थ, काल आदिसे स्वरूपको नहिं बनाते किंतु आत्मासे हि = स्वरूपसे हि सभी पदार्थ स्वरूपको प्राप्त करते हैं... प्रश्न- यह आत्मा कौन है ? उत्तर- अद्वैतवादीओंका कहना है कि- यह आत्मा विश्वपरिणाम स्वरूप हि है... कहा भी है कि- एक हि आत्मा प्रत्येक जीवमें प्रत्येक पदार्थमें रहा हुआ है... और यह आत्मा जलमें प्रतिबिंबित चंद्रकी तरह एक भी है, और अनेक भी है... तथा कहा भी है कि- यह जो कुछ है वह केवल पुरुष हि है, जो हुआ और जो होगा वह भी मात्र पुरुष हि है... इसी प्रकार जीव स्वतः एवं कालसे नित्य है... इस प्रकार सभी 180 प्रकारमें योजना करें... अब नास्तित्व को कहनेवाले अक्रियावादीओंका भेद-प्रभेद कहते हैं... अक्रियावादीओंके मत के अनुसार जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष सात पदार्थ है... स्व एवं पर-भेद से 742 = 14 काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा... इन : भेदोंसे 1446 = 84 भेद अक्रियावादीओंके हुए... 1. जीवः नास्ति स्वतः कालतश्च 2. जीवः नास्ति परतः कालतश्च इस प्रकार काल से दो भेद प्राप्त हुए... इसी प्रकार यदृच्छा, नियति आदिमें भी दो दो भेद होते हैं अतः सभी मीलकर जीव के बारह भेद हुए... इसी प्रकार अजीव आदिके भी 12-12 भेद होते हैं अतः 1247 - 84 भेद हुए... नास्ति जीवः स्वतः कालतश्च... इसका तात्पर्य यह है कि- इस संसारमें पदार्थोकी सत्ता (होना) लक्षणसे निश्चित करतें हैं कि- कार्य से ? क्योंकिआत्मा का कोई ऐसा लक्षण नहिं है कि- जीससे सत्ता मानी जाए... और पर्वत वगेरेह अणुओंका कार्य है ऐसा भी संभव नहिं है... और जो वस्तु लक्षण और कार्यसे नहिं जानी जा शकती, वह वास्तवमें वस्तु हि नहिं है... जैसे किआकाश पुष्प... इसी प्रकार आत्मा भी नहि है... द्वितीय विकल्प - आकाश पुष्पकी तरह जो आत्मा स्वतः हि नहिं है, वह