________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-१-१-3॥ 67 - अस्ति जीवः स्वतः कालतश्च अनित्यः अस्ति जीवः परतः कालतश्च नित्यः अस्ति जीवः परतः कालतश्च अनित्यः यह चार भेद काल से हुए... काल के स्थानमें नियति - स्वभाव - ईश्वर एवं आत्मा रखने से 4 x 5 = 20 भेद हुए.... यह 20 भेद जीव पदार्थके हुए... अब जीवके स्थानमें अजीव आदि पदार्थ रखनेसे... 20 x 9 = 180 भेद क्रियावादीके हुए.... स्वतः याने जीव अपने हि स्वरूपसे है किंतु ह्रस्वत्व, दीर्घत्व की तरह अन्य कीसीके कारणसे नहिं.... तथा यह जीव नित्य याने शाश्वत... सदा रहनेवाला... पूर्व काल और उत्तरकालमें .. रहनेवाला है... क्षणिक याने विनश्वर नहिं है, किंतु नित्य हि है... काल से याने काल हि विश्वकी उत्पत्ति स्थिति और विनाशका कारण है... कहा भी है कि- काल हि जीवोंको कर्मका फल देता है... काल हि जीवोंका संहार करता है... काल हि सोये हुए जीवोंका रक्षण करता है... अतः काल वास्तवमें दुरतिक्रम है... . यह काल अतींद्रिय है, फिर भी विभिन्न = एक साथ होनेवाली, देर तक होनेवाली. - जल्दीसे होनेवाली क्रियाओंसे जाना जाना है... . ठंडी, गरमी एवं वर्षा ऋतुका व्यवस्थापक काल है... क्षण, लव, मुहूर्त, प्रहर, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, कल्प, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, .. पुद्गलपरावर्त, भूतकाल, भविष्यकाल, वर्तमानकाल इत्यादि सभी अद्धा-कालके व्यवहार स्वरूप यह कालं है... यह प्रथम विकल्प हुआ... - अब द्वितीय विकल्पमें कालसे हि आत्माका अस्तित्व मानना चाहिये, किंतु वह आत्मा अनित्य है... तृतीय विकल्पमें आत्मा पर-पदार्थोकी अपेक्षासे विभिन्न है यह बात समझना है... .. प्रश्न- आत्माका अस्तित्व परकी अपेक्षासे कैसे है ? जिस प्रकार पर-पदार्थ के स्वरूपकी अपेक्षा से हि शेष सभी प्रकारके पदार्थों के स्वरूपका ज्ञान-विभाजन होता है यह बात जगतमें प्रसिद्ध हि है... जैः कि- लंबी वस्तुकी अपेक्षासे हि यह वस्तु छोटी है ऐसा ज्ञान होता है, और छोटी वस्तुकी अपेक्षासे हि यह वस्तु लम्बी है ऐसा जाना जाता है... इसी प्रकार अनात्मा ऐसे स्तंभ, कुंभ आदिको देखकर उससे विभिन्न अन्य वस्तु ऐसे उत्तर- जिस एका