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________________ भिन्न-भिन्न शब्दों से कहा गया है। मुक्ति जिसे अन्यदर्शनकार भी अलग-अलग नामों से स्वीकारते है लेकिन तात्त्विक रूप से उसमें भेद नहीं है। अत एव च निर्दिष्टं, नामास्यास्तत्त्ववेदिभिः। वियोगोऽविद्यया बुद्धि, कृत्स्नकर्मक्षयस्तथा // 10 आचार्यश्री ने योगमार्ग में अत्यंत उपोदय एवं लक्ष्य को संप्राप्त कराने का जो असाधारण कारण असंग अनुष्ठान उसको ही अन्य दर्शनकारों के द्वारा अन्यान्य नाम उल्लेखित किया है उसे ही स्पष्ट करते है। "प्रशान्तवाहितासंज्ञ,विसभाग परिक्षयः। शिववर्त्म ध्रुवाध्वेति, योगिभिर्गीयते ह्यदः // 11 असंग अनुष्ठान को ही अन्यदर्शनकार के योगी प्रशान्तवाहिता विसभाग-परिक्षय, शिववर्त्म और ध्रुवाध्वा नामों से आख्यायित करते है। सामान्यतया बड़े-बड़े विद्वान् जब चर्चा करने लगते है अथवा कुछ लिखते है तब उनमें विजिगीषा एवं स्वदर्शन का अनुराग विशिष्ट तौर पर होता है और अपने मत को स्थापित करने की भावना मुख्यरूप से होती है जिससे विविध शाखाओं के बीच मानसिक अंतर पड़ जाता है और शाब्दिक धोखाधडी एवं विकल्प के जाल में सत्य की साँस घुट जाती है। किन्तु हरिभद्र इस बारे में सर्वथा निराले रहे / वे परवादियों के सामने समदर्शित्वरूप में आये। इस प्रकार श्रुताम्नाय में समदर्शित्व रूप से संदोहन करके उन्होंने सम्पूर्ण दार्शनिक जगत को अपने में समाविष्ट कर दिया। अपना अपूर्व जीवन तन्मय कर, हरिभद्र श्रमण-संस्कृति के एवं साहित्य के सर्जक होकर श्रेष्ठतर संप्रचारक बने। अपने आत्म प्रज्ञावाद को पंच-परमेष्ठि के प्रति प्रणत भाव में पुलकित रखते हुए प्रतिपल श्रुत संदोहन की नियमितता को नित्य की दिनचर्या में स्थान दिया, मान दिया, महत्त्व दिया / जो श्रुत को जीवन में स्थान देता है, मान देता है, महत्व बढ़ाता है, वही युग-युगान्तों तक श्रुतसंदोहन रूप से आत्मख्याति उपलब्ध करता है / आचार्य हरिभद्र एक ऐसे तत्पर तत्त्वज्ञ रूप में श्रुत संदोहन में प्रतिष्ठित मिले है। अत: वे एक विरल विभूति के रूप में सम्मानित हुए सम्पूजित हुए। | 1. सम्पूर्ण विवरण प्राप्त कृतियाँ 1. सम्प्रति उपलब्ध स्वोपज्ञटीकायुक्त ग्रन्थकलाप 1. अनेकान्तजयपताका 2. पञ्चवस्तु प्रकरण ___3. योगदृष्टि समुच्चय 4. योगशतक 5. सर्वज्ञसिद्धि 6. हिंसाष्टक अवचूरि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII प्रथम अध्याय 46
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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