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________________ पारंपरिक कर्म धारणाओं को शास्त्रीय सिद्धान्तों से समलंकृत करते हुए कर्म-बीजों की विविधता से व्याख्या देते रहे है। ऐसे महान् व्याख्याकार, विवेचनकार कर्म प्रकृतियों के पुरातन प्राज्ञ बनकर हमारे सामने आज भी विद्यमान है। उनका कर्म विषयक वैदुष्य विशेष संस्मरणीय होकर सिद्धान्त पक्ष को सबल बनाने में सहायक रहा है। साथ में आत्मवाद और कर्मवाद की सामञ्जस्यता को सम्बोधित करने में सफल रहे है। क्योंकि कर्मवाद के ऊपर आचार्य गर्गर्षि, आचार्य चंदर्षि जैसे पुरातन महाश्रमणों का योगदान सदैव संस्मरणीय रहा है। हरिभद्र ने भी अपनी पारंपारिक कर्म प्रकृतियों का अनुशीलन कर अपने आत्मज्ञान को प्रभावित बनाया है और जनहित में उपयोगी कहा। आचार्य हरिभद्र जितने दार्शनिक थे उतने ही परमात्म परायण के प्रतीक भी थे उन्होंने अपनी आत्मवाणी को परमात्म-स्तुति में पावनी बनायी थी। “वीरस्तवः'जैसे स्तुति ग्रन्थ लिखित कर लोक में परमात्म स्तुतिकार रूप में आख्यात हुए है, और “संसारदावा'८४ स्तुति में सफल बने। “वीरंदमीदं जगजीवणाहं" जैसी स्तुती की रचना कर जैन दर्शनके देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा को जागृत किया है। ___अपने आत्म जीवन में हरिभद्र ने एक चरित्रकार रूप से “मुनिपतिचरित्र” और यशोधरचरित्र" को लिखकर लोकमंगल स्वरूप को उपस्थित किया है। कथाकार रूप में कथाकोष के निर्माता बनकर एक निर्मल कथाओं के संग्रहकार स्वरूप में उपस्थित हुए। “वीरङ्गदकथा” “समराइच्चकहा' जैसी कथाओं की भी रचना की। ___ परमात्मा प्रतिष्ठा के कल्पों को पुरातन काल के प्रामाणिक आचारों से एवं आदर्शों से प्रतिष्ठा-कल्प' जैसे ग्रन्थ का प्रणयन करके परम विधिज्ञ विद्वान् हुए। ___आत्मानुशासन के अनुशास्ता होकर ‘संस्कृतात्मानुशासनम्' ग्रन्थ जैसे का निरूपण कर अपना आत्मजीवन सुसंस्कृत अनुशासित किया। न्याय विषयक ग्रन्थ निरूपण में उन्होंने सुन्दर नेतृत्व निभाया जैसे "न्यायप्रवेशवृत्ति, न्यायविनिश्चय" उनके प्रमुख ग्रन्थ है। आचार्यश्री शय्यंभव के “दशवैकालिक' ग्रन्थ पर लघुवृत्ति और बृहद्वृत्ति लिखकर आचार कल्प का सुन्दर विवेचन किया है। _____ भौगोलिक परिज्ञान में क्षेत्रसमासवृत्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिटीका, जम्बूद्वीप संग्रहणी, जैसे ग्रन्थों को लिखकर अपना ज्ञान सारगर्भित व्यक्त किया। षडावश्यक का विषय श्रमण आम्नाय में सदा सम्मानित रहा है उसे भी आचार्य श्री की लेखनी ने सुललित बनाया है जैसे आवश्यकबृहट्टीका, आवश्यकटीका / पञ्चज्ञान निरूपक नन्दीसूत्र पर आचार्य श्री ने “नन्दी अध्ययनटीका' लिखकर अभिनन्दनीय कार्य किया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII प्रथम अध्याय | 40 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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