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________________ लोकवाद भी तत्त्व के महत्त्व को शिरोधार्य करता चल रहा है। इसी तत्त्व को द्रव्यगुण से गरिमान्वित बनाने का श्रेय द्रव्यानुयोग ने उपार्जित किया है। जो तत्त्व अस्तित्ववाद से आशान्वित हुआ है उसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि घटित हुए है। यह मात्र जैन दर्शन की अपनी निराली देन है। काल की गणना अनस्तिकाय में की है। क्योंकि काल का समूह नहीं होता है। वर्तमान काल मात्र एक समय का होता है। ये तात्त्विक विचार अनेकान्तवाद से उल्लिखित भी हुए है। यह अनेकान्तवाद तत्त्व के तेजोमय प्रकाश का एक प्रतिबिम्ब है। जिसको सर्वज्ञों ने भी स्वीकार कर सर्वजनहित में वाच्य बनाया है और वही महापुरुष सर्वज्ञता की सिद्धि के प्रणेता बने। इसलिए तत्त्व जैसे तिमिर रहित तेजोमय प्रकाश में हमारी संस्कृति, हमारा स्वाध्याय पथ और परलोक सम्बन्धी विमर्श, इहलोक सम्बन्धी मंतव्य तत्त्व के अन्तर्गत आलोकित मिले है। आचार्य हरिभद्र ने भी तत्त्ववाद के उपर अपनी विशाल प्रज्ञा को प्रस्तुत कर तत्त्ववादिता का सार जगत को समझाया जिसका यह परिणाम है कि हम तात्त्विक और सात्त्विक बनते चले आ रहे है। यह चिरन्तनी . तत्त्वमयी साधना उपासना के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है, पूज्य है, परम आराध्य है। युग के दृष्टिकोणों से तत्त्व की विभिन्न अवधारणाएँ बनती ही गई है। परन्तु वह तत्त्व एक ही है जो अनेक मंतव्यों से मान्य हआ है। 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते।' - ज्ञान के सदृश पवित्रतम अन्य कोई नहीं है। अतः यह अनुपमेय है। अतः तृतीय अध्याय में ज्ञान मीमांसा की विवेचना है। इसका उत्पत्ति स्थान आत्मा ही है, अतः . इसको पाँच प्रकार से जैन दर्शन में प्रतिपादित किया है। ज्ञान स्वयं स्वप्रकाश स्वरूप है, इसे ही मति, श्रुत के भेद से सन्तुलित समन्वित किया गया है। अवधि, मनःपर्यवज्ञान जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण मान्य विषय रहा है। केवलज्ञान एक ऐसा ज्ञान है जहाँ मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यव सभी विराम लेकर केवलज्ञान में लीन हो जाते मतिज्ञान सहित ही श्रुतज्ञान की महिमा बताई गई है। ‘जत्थ मइण्णाणं तत्थ सुयमाणं' - जहाँ मतिज्ञान होता है वहाँ श्रुतज्ञान अवश्य रहता है। इन दोनों में कुछ समानताएँ पाई जाती है तो कुछ विभिन्नताएँ भी दृष्टिगोचर होती है। जिसके कारण मति श्रुत भिन्न-भिन्न स्वीकारा है। मति श्रुत के भेद प्रभेद भी अत्यधिक समुपलब्ध होते है। केवलज्ञान अन्तिम इसलिए स्वीकृत किया गया है कि जिसमें अन्य सभी ज्ञान सम्पूर्ण अस्तित्व से एकीभूत हो जाते है। अन्य ज्ञानों की एकीभूतता का नाम ही केवलज्ञान है। इसलिए केवल का महत्त्व एवं मूल्यांकन विशेष रहा है। ज्ञान लोकालोक की सीमाओं तक प्रकाशित रहता है और सर्वत्र प्रसरणशील बना रहता है। ज्ञान से ही ज्ञेय तत्त्व का प्रतिबोध होता है अन्यथा ज्ञेयता निर्मूल बन जाती है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIN MA उपसंहार 474
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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