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________________ लेखनी को धन्य बनाया है। यह उनका दार्शनिक चिन्तन दिव्यदर्शी सिद्ध हुआ है। सांख्य दर्शन ईश्वरवाद पर इतना तत्पर नहीं है। वह कभी-कभी निरीश्वरवाद की कल्पना करता आया है। अतः सर्वज्ञता को उन्होंने चर्चित ही नहीं किया। वैसे ही चार्वाक् दर्शन सर्वज्ञ-चर्चा से मुक्त है। सर्वज्ञता में कर्तृत्ववाद का निरूपण नहीं रखते हुए ज्ञातृत्व भाव प्ररूपण प्रोन्नत स्वीकार करते है हरिभद्र। और अपने लोकतत्त्व निर्णय में सर्वज्ञत्व को सर्वविद् रूप में स्पष्ट करते है। गुणवृद्धिहानिचित्रा कैश्चिन्न मही कृता न लोकश्च। इति सर्वमिदं प्राहुः त्रिष्वपि लोकेषु सर्वविदः // 7 आचार्य हरिभद्र लोक कर्तृत्ववाद को निरस्त करते हुए कहते है कि गुणवृद्धि और गुणहानि से विचित्र ऐसी इस पृथ्वी को न किसी ने बनाई है, नहि लोक का सर्जन किसी के द्वारा किया गया है। इस प्रकार इस लोक में दृश्य अथवा अदृश्य सभी पदार्थ छः प्रकार की गुण हानि से विचित्र है और न किसी ने बनाये है ऐसा सर्वज्ञ भगवंत कहते है। . अन्य सन्दर्भ में - अन्य सन्दर्भ में मुख्य अनेकान्तवाद आता है जो एकांत के विरुद्ध आवाज उठाता है। सर्व दृष्टि से सन्तुलित शुद्ध ऐसा दृष्टिकोण दर्शित करना यह अनेकान्त का उद्देश्य है, इसमें न तो हठधर्मिता है न कदाग्रहता है, न किसी प्रकार की विसंगतियाँ है। एक ऐसी विशुद्ध धारा सर्व दृष्टि से सुमान्य वह है - अनेकान्त दृष्टिकोण, जिस अनेकान्त विषय को आचार्य हरिभद्र ने ‘अनेकान्तजयपताका' के रूप में प्रतिष्ठित किया है। ऐसी अनेकान्तवादिता के आश्रय से हम आग्रह रहित अनुनयी बने रहते है। प्रत्येक पदार्थ को अनेकान्त दृष्टि से स्वीकार करते हुए निर्बन्ध रूप में निर्मल रहते है। निर्मलता ही निश्चय नय की भूमिका का भव्य दर्शन है। इनकी अभिव्यक्त शैली स्याद्वाद किसी को अनुचित रूप से उल्लिखित नहीं करता हुआ गुणग्राहिता से गौरव देता है, सर्वदर्शी सही बना रहता है। इस स्याद्वाद की श्रेष्ठ भूमिका को भाग्यशालिनी बनाने में मल्लवादि आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र आदि प्रमुख रहें हैं। इन्होंने अनेकान्त को जैन दर्शन का उच्चतर उज्ज्वल दृष्टिकोण दर्शित कर दर्शन जगत को एक दिव्य उपहार दिया है। जब दार्शनिक संघर्ष सबल बन गया, तब श्रमण भगवान महावीर ने एक अभिनव दृष्टिकोण को आविर्भूत कर अनेकान्त का श्रीगणेश किया। जो हमारे जैन दर्शन का अभिनव अंग है। जिस पर अगणित ग्रन्थों की रचना हुई और स्याद्वाद सिद्धान्त की प्ररूपणा हुई। - इसी अनेकान्तवाद को सप्तभंगी रूप में समुपस्थित कर सर्वहित में एक शुद्ध शुभाशय अभिव्यक्त किया है। यह सप्तभंगी नय न्यायदाता है, और नवीनता से प्रत्येक को निरखने का नया आयाम है। सभी गुणों का संग्राहक होकर उसका सत्स्वरूप, असत्स्वरूप, वाच्यस्वरूप, अवाच्यस्वरूप, अभिव्यक्त करना यह सप्तभंगी का शुभ आशय रहा है। इस आशय पर तीर्थंकर भगवंतों की स्तुतियाँ हुई, द्वात्रिंशिकाएँ बनी और ऐसी सुंदर लोकभाषा में | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII सप्तम् अध्याय 465
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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