________________ करता रहता है। इसलिए सुख दुःख मोह स्वरूप वाली प्रकृति को जब तक आत्मा से भिन्न नहीं समझता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। प्रकृति को आत्मा से भिन्न रूप में देखने पर तो प्रकृति की प्रवृत्ति अपने आप में रुक जाती है और प्रकृति का व्यापार रुक जाने पर पुरुष का अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। वैशेषिक मत में बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न भावना, संस्कार और द्वेष इन आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यंत उच्छेद होना मोक्ष है।२४ चार्वाक् दर्शन तो मोक्ष को स्वीकारता ही नहीं, क्योंकि जब वह आत्मा, पुण्य, पाप कुछ भी नहीं स्वीकारता तो मोक्ष कैसे मानेगा। वह तो मृत्यु को ही मोक्ष मानता है। यह चार्वाक् सिद्धान्त है - ‘मरणमेवापवर्गः' मोक्ष का अर्थ - मोक्ष अर्थात् मुक्त होना। मुक्ति दार्शनिकों ने स्वीकार की है। इस मोक्ष को जैन दर्शनकार सर्व कर्मों के क्षय से स्वीकृत करते है। जैसा कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में कहा है - कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्ति-भैंगसंक्लेशवर्जिता। भवाभिनन्दिनामस्यां, द्वेषोऽज्ञाननिबन्धना॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय, नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्य कर्म एवं वेदनीय कर्म - इन आठों कर्मों के सम्पूर्ण दलिकों का आत्मा से अलग होना ही मुक्ति है। अर्थात् मुक्ति भोग और संक्लेश रहित होती है। जो भवाभिनन्दी जीव है, उनको अज्ञान, मिथ्यात्व आदि होने के कारण मोक्ष पर द्वेष होता है। लोक तथा लौकिक शास्त्रों में मोहित बने हुए लोगों के अपलाप संत पुरुषों को तो सुनने भी अच्छे नहीं लगते। अर्थात् आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि हमने मूर्ख लोगों के मुख में से निकलते ऐसे अयोग्य प्रलाप सुने है कि जो सत्य पारमार्थिक मुक्ति की सिद्धि करनेवाले होते है उन वचनों का अत्यंत द्वेष करनेवाले अर्थात् तिरस्कार पूर्वक खंडन करनेवाले होते है। ऐसे वचन आत्मा का कल्याण करनेवाले नहीं होने से संत पुरुषों को जरा भी कर्णप्रिय नहीं लगते। उनका कथन इस प्रकार है - जइ तत्थ नत्थि सीमंतिणीओं मणहर पियंगुवन्नाओं। तारे सिद्धन्तिय ! बन्धनं खु मोक्खो न सो मोक्खो।। यदि तत्र नास्ति सिमन्तनीका मनोहर प्रियंगुवर्णी। तस्मात् रे सिद्धान्तिक ! बन्धनं मोक्षो न स मोक्षः। मोक्ष में सुंदर प्रियंगु वर्ण को धारण करने वाली स्त्रियों के विषय भोग नहीं मिलने से वह सभी कर्म का अभाव रूप है। वह तात्त्विक रीति से मोक्ष नहीं है। लेकिन एक जैन सिद्धान्त के द्वारा स्वीकारा गया वह मोक्ष वास्तविक बंधनवाला कारागृह ही है। ऐसा विषयभोग में आसक्त बने गृध्र जैसी प्रकृतिवाले मूर्ख पंडित मानते है और उनके द्वारा रचित शास्त्रों में प्रसिद्ध है। इसी बात की पुष्टि में निम्नोक्त श्लोक दिया - वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वमाभिवाञ्छितम्। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA सप्तम् अध्याय' | 450