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________________ कार्य करने में कृत्कृत्य मिलेगा। परोक्षता की परम अनुमानिता अधिकृत करती हुई यह आत्मवादिता अभी तक सश्रद्धेय रही है। अतः आत्मवाद को अनेक आचार्यों ने सम्मानित रखा। साहित्य की भूमि पर इसको विस्तृत बनाने में वाङ्मयी धाराएँ प्रवाहित रही है। ___ दर्शन जगत के अगणित अनेक आर्ष पुरुषों ने आत्मवाद की घोषणा करने में उच्चता अपनाई है। संस्कृति का सुपरिचय ही आत्मवाद की उपलब्धियों से है। दार्शनिकता का दिव्य दृष्टिकोण आत्मवाद के अध्यायों से उज्ज्वल है, उल्लिखित है। अतः आत्मवाद को यदि हम स्वीकार कर लेते है, तो पुण्य-पाप, बन्धमोक्ष की मान्यताएँ महत्त्वपूर्ण लगती है। आत्मवाद से इहलोक और परलोक के ताने-वाने जुड़े हुए है, क्योंकि आत्मा में कारकत्त्व धर्म है। अतः कर्मफल भोक्ता है। इसलिए आत्मवाद के बिना दर्शन जगत में दार्शनिकता को सम्मान नहीं मिलता है। . दर्शनवादिता के दिव्य दृष्टिकोण को दूरदर्शिता से सुदृढ पूर्वक प्रस्तुत करने में आत्मवाद ही प्रमुख रहा है। वो आचारों को भी अपनाता है और विचारों को भी पनपाता है। आचार और विचार दोनों ही आत्मवाद के अमूल्य निधि है, जो जीवन विधि को जीवित रखते हुए जगत में अद्यावधि सुरक्षित है। __ आत्मा संबंधी मान्यताएँ भिन्न-भिन्न दर्शन में विविध प्रकार से मिलती है। आस्तिक दर्शन प्रायः करके सभी आत्मा को स्वीकार करते है, चाहे वो किसी भी रूप में माने। लेकिन एक नास्तिक दर्शन चार्वाक ही आत्मा के अस्तित्व स्वीकारने को तैयार नहीं है। शास्त्रवार्ता समुच्चय में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के लिए आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक् दर्शन को युक्तियों से समझाया है और अन्त में कहा कि उक्त युक्तियों से आत्मा की सिद्धि हो जाने पर अनात्मवादी चार्वाक् का मुँह यदि म्लान दिख पड़ता है तो उस म्लानता का कारण हम आत्मवादी नहीं है किन्तु अप्रमाणिक अनात्म के प्रति उसकी दुराग्रहपूर्ण निष्ठा ही कारण है। चार्वाक् मत में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और महुआ आदि के सड़ने पर शराब में मादक शक्ति की भाँति भूतों में ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिस तरह जल में बुलबुले उत्पन्न होते है और विलीन होते रहते है, उसी तरह जीव भी इन्हीं भूतों से उत्पन्न होकर इन्हीं में विलीन हो जाता है। चैतन्य विशिष्ट शरीर का नाम ही आत्मा है। चार्वाक् की अपेक्षा बौद्ध परिष्कृत बुद्धि वाले होते है। अतः उनकी मान्यता यह है कि दृश्यमान नश्वरदेह आत्मा नहीं है, किन्तु क्लेश विविध वासनाओं से युक्त नित्य मन ही ‘अहम्' इस ज्ञान का विषय है, उसी का नाम आत्मा है, उससे भिन्न कोई शाश्वत आत्मा नहीं है। अत्रापि वर्णयन्त्येके सौगताः कृतबुद्धयः / क्लिष्टं वर्णयन्त्येके सौगताः कृतबुद्धयः॥ सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल आचार्य पुरुष को ही आत्म मानते है तथा उस आत्मा को चोवीस तत्त्वों से भिन्न, अकर्ता, निर्गुण भोक्ता तथा नित्य चैतन्यशाली स्वीकारते है। जैसे कि - [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / सप्तम् अध्याय 441
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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